Thursday, 5 November 2020

https://www.hindi-web.com/wp-content/uploads/2015/08/Gopi-cheervastra-haran-Leela-in-hindi-650x410.jpg

 कृष्ण द्वारा गोपियों के बगैर वस्त्र स्नान करने पर शिक्षा !!!

जब गोप‌ियां अपने वस्‍त्र उतार कर स्नान करने जल में उतर जाती हैं। भगवान श्रीकृष्‍ण गोप‌ियों के वस्‍त्र चुरा लेते हैं और जब गोप‌ियां वस्‍त्र ढूंढती हैं तो उन्हें पता चलता है उनके वस्‍त्र पास ही के पेड़ पर कान्हा के पास हैं। गोप‌ियां जब कान्हा से अपने वस्त्र मांगती है तो कान्हा कहते हैं कि बाहर आ कर ले लो। इस पर बिना वस्त्रों से गोपियां जल से बाहर आने में अपनी असमर्थता जताती हैं। कान्हा उनसे बहस करते हैं। गोपियां कहती हैं जब वो नदी में स्नान करने आईं, तो उस समय यहां कोई नहीं था।

ये बात सुनकर कान्हा कहते हैं मैं तो हर पल हर जगह मौजूद होता हूं फिरआसमान में उड़ते पक्ष‌ियों और जमीन पर चलने वाले जीवों ने तुम्हें न‌िर्वस्‍त्र देखा। जल में मौजूद जीवों ने तुम्हें न‌िर्वस्‍त्र देखा और तो और जल रूप में मौजूद वरुण देव ने तुम्हें नग्न देखा।

भगवान श्रीकृष्ण और गोपियों से सम्बंधित कई प्रसंग हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में मिलते हैं। ऐसा ही एक प्रसंग वस्त्र छुपाने की लीला से सम्बंधित है।

किसने कहा कि भगवान छुपकर देखते थे? क्या वस्त्र हरण और युगल स्नान की घटना को किसी ने अच्छे से समझा है? वस्त्र हरण और स्नान करने की यह घटना तब घटी थी जब श्रीकृष्ण की उम्र मात्र 6 वर्ष की थी। 11 वर्ष की उम्र के बाद भगवान श्रीकृष्ण का जीवन हमेशा हमेशा के लिए बदल गया था। पलायन, संघर्ष, युद्ध और विनाश में ही बीत गया सारा जीवन।
यह जो चित्र देख रहे हो वह श्रीकृष्ण की आठ पत्नियों के साथ हैं जिन से विभिन्न कारणों से उन्होंने विवाह किया था। जहां तक सवाल राधा का है तो वह श्रीकृष्ण के वृंदावन से चले जाने के सालों बाद द्वारिका में मिली थी। बस वही उनकी अंतिम मुलाकात थी। बचपन की सखी को भक्तिकाल के कवियों ने प्रेमिका बना दिया।

श्रीमदभागवद्भत के दशम स्कंध में वस्त्र हरण प्रकरण आता है। भगवान का हर कार्य दिव्य होता है। इसे समझने के लिए दृष्टि चाहिए। लीला के अर्थ का समझने की बुद्धि चाहिए। उस वक्त श्रीकृष्ण की उम्र छ: वर्ष थी। सबसे बड़ी गोपी दस बरस की थी। इसके अलावा भगवान के सखाओं में से सभी गोपियां किसी की बुआ किसी की बहन थी। किसी की भाभी।

भगवान के प्रेम में विभोर होकर संकीर्तन करती हुई गोपियां मां कात्यायनिनी की पूजा हेतु अपने घरों से यमुना स्नान के लिए निकलतीं थीं। इसी भाव समाधि की अवस्था में वे यमुना में प्रवेश करतीं थीं। उन्हें ये होश ही नहीं रहता था उन्होंने कितने वस्त्र उतार दिए हैं।

क्योंकि गोपियों ने निर्वस्त्र होकर यमुना में स्नान किया है जो शास्त्र विरुद्ध है इसलिए भगवान उनका अपराध निवारण करने के लिए चीर हरण करते हैं। उनके वस्त्र चुरा कर छिपा लेते हैं। भगवान उनसे कहते हैं तुमने अपराध किया है अब बाहर आकर सूर्य को नमस्कार करो। प्रण करो कि आगे से ऐसा नहीं करोगी। इस प्रकार गोपियों के अविद्या के आवरण को भगवान ने इस प्रकरण में हटाया है यही है भगवान की चीर हरण लीला।

कृष्णा ने गोपियों के वस्त्र का हरण किये थे। परन्तु आज यहाँ पर इस रहस्य को उद्घाटित करना बहुत ही अनिवार्य है की.

भगवान् श्री कृष्ण ने ऐसा क्यों किया?

श्री कृष्ण पूर्ण पुरुष परमेश्वर भगवान् इस धरती पर जीवों को असली प्रेम तत्व समझाने और

धरती से पापियों का नाश करने हेतु अवतरित हुए थे।
मनुष्य का शरीर 24 तत्वों से मिलकर बना होता है। जो माया के अंतर्गत आती हैं,

माया के अन्तर्गत जब तक लेश मात्र भी पड़े रहने तक ईश्वर पर प्रेम होना असंभव है, ईश्वर दर्शन होना असंभव मात्र है।

गोपी एक प्रेम की उच्च अवस्था है; गोपी की बुद्धि, उसका मन, चित्त, अहंकार.

और उसकी सारी इन्द्रियां उनके प्रियतम श्याम सुन्दर के सुख के साधन हैं।

उनका जागना-सोना, खाना-पीना, चलना-फिरना, श्रृंगार करना, गीत गाना, बातचीत करना–सब श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाने के लिए है।

Gopi का श्रृंगार करना भी भक्ति है। यदि परमात्मा को प्रसन्न करने के विचार से श्रृंगार किया जाए तो वह भी भक्ति है।

मीराबाई सुन्दर श्रृंगार करके गोपालजी के सम्मुख कीर्तन करती थीं।

उनका भाव था–’गोपालजी की नजर मुझ पर पड़ने वाली है। इसलिए मैं श्रृंगार करती हूँ।’

श्री कृष्ण मात्र 6 वर्ष के थे, जब उन्होंने गोपियों के वस्त्र चुराए थे।

आप ही अब स्वयं सोच सकते हैं की इतनी छोटी आयु में वस्त्र हरण करना एक भौतिक दृष्टि से क्रीड़ा हो सकती है, परन्तु अभद्रता नहीं।

सांख्य दर्शन के 25 तत्व
आत्मा(पुरुष)
(अंत:करण 4) -मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार
(ज्ञानेन्द्रियाँ 5) -नासिका, जिह्वा, नेत्र, त्वचा, कर्ण
(कर्मेन्द्रियाँ 5) -पाद, हस्त, उपस्थ, पायु, वाक्
(तन्मात्रायें 5) -गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द
(महाभूत 5) -पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश

वो साक्षात् परमेश्वर है, राजाधिराज ईश्वरो के इश्वर, अंतिम सत्य हैं। उन्होंने गोपियों के वस्त्र उन्ही के कल्याण के लिए चुराए थे।

How can we accept Lord Krishna as God, despite his actions of flirting with the Gopis (village maidens)?
श्री कृष्ण का हास परिहास गोपियों के प्रति प्रेम भाव को प्रगट करना है।

क्या? एक 6 वर्ष का बालक किसी कन्या के साथ मधुर भाव का विवेचन कर सकता है, श्री कृष्ण परम परमेशवर हैं.

और Gopi का रोम-रोम श्री कृष्णा से देदीव्यमान हैं। उनके हर सांस में श्री कृष्ण चेतन अवस्था में विराजित हैं।
यहाँ पर यह स्पष्ट करना बहुत ही अनवार्य है की गोपियों के साथ प्रेम शारीरिक नहीं आत्मिक प्रेम था।

गोपिओं का प्रेम, प्रेम की महापराकाष्ठा है।

जिसे ब्रह्मा विष्णु महेश भी आसानी से बिना गोपी देह प्राप्त किये नहीं जान सकते।

उन्हें भी महारास में प्रवेश करने हेतु गोपी देह प्राप्त करना अनिवार्य हो जाता है।

जो कुछ भी कर रहे हैं यही सोच के करो की श्री कृष्ण के लिए ही कर रहे हैं।

आपका चलना, खाना-पीना, श्वास तक लेना यही सोच के होगा की आप श्री कृष्ण के लिए कर रहे हैं।

यह आत्मा, परमात्मा का अभिन्न अंग है। जिससे हम पृथक हो गए हैं।

आपका जो भी कर्म है, उसका बिना कोई फल लेते हुए निष्काम भक्ति से कर्म करना यही आपको धीरे-धीरे श्री कृष्ण प्रेम की और अग्रसरित करेगा।

यहाँ पर इस बात को स्पष्ट करना अनिवार्य है की जब साधक इस अवस्था तक पहुचता है.

तब उसे इस बात का भी भान नहीं रहता की वह श्री कृष्णा की सेवा कर रहा है।

ऐसा इसलिए क्योंकि इस अवस्था में साधक का चित्त कृष्ण तन्मयता में इतना विलीन हो जाता है की वो खुद ही को कृष्ण ब्रज की गोपी ब्रज रेणु ये सब समझने लगता है।

जहाँ आत्मा कृष्ण के लिए श्वास कृष्णा के लिए, सारे क्रियाकलाप कृष्णा के लिए, कृष्ण को छोड़ और कुछ है ही नहीं।

मित्रों! जरा आप गौर करें, परम पवित्र कथा है वस्त्र हरण की, बड़ा गंभीर प्रसंग है, चौरासी कोस के ब्रजमंडल में रहने वाली जो गोपी है, प्रातः चार बजे उठतीं है, ब्रह्म मूहूर्त में उठ जाती हैं, प्रातः चार बजे से लेकर साढ़े पांच बजे तक का समय ब्रह्म मुहूर्त कहा जाता है, सर्दी के दिनों में प्रातः चार बजे बहुत अन्धकार रहता है।

चार बजे सर्दी के दिनों में गोपी उठकर जातीं, पूरे कपड़े उतारकर यमुना किनारे रख देतीं और बिल्कुल निर्वस्त्र होकर यमुना स्नान करतीं, यमुना स्नान करके वे कुमारीकायें फिर अपने वस्त्रों को पहन लेती और कात्यायनी माता की पूजा करतीं, माता कात्यायनी की धूप-दीप नैवेद्य से पूजा करके मांगती क्या?

कात्यायनी महामाये महायोगि न्यधीश्वरि।
नन्द गोप सुतं देवि पतिं मे कुरू ते नमः।।

हे माता कात्यायनी, हम आपके चरणों में प्रणाम करतीं है, नन्दगोप के पुत्र जो श्री कृष्ण है उन्हें हमारा पति बनाओ, नन्दगोप के पुत्र ही हमें पति रूप में मिले, ऐसा आशीर्वाद दे दो, ऐसा सुन्दर भाव, इस भाव का कोई शब्दों में क्या वर्णन करेगा, एक दिन गोपियों को मार्ग में कृष्ण मिल गये एक महीना तक जब उन्होंने व्रत किया।

कन्हैया को मार्ग में मिलकर बोले- देवियों, आप यमुना स्नान करो मेरे को सब मालूम है, यमुना स्नान करके कात्यायनी की पूजा करौ ये भी हमकूं पत्तों है, कात्यायनी मां की पूजा करके हमें पतिरूप में मांगौ ये भी मैं जानू, लेकिन स्नान करने की जो तुम्हारी पद्धति है ये बिल्कुल अच्छी नहीं है, क्यों? क्योंकि वेद कहता है, किसी भी जलाशय में निर्वस्त्र होकर स्नान मत करो।

निर्वस्त्र होकर स्नान करने से दो प्रकार का अपराध है- लौकिक अपराध और धार्मिक अपराध,
धार्मिक अपराध यह है कि जल का जो स्वामी है उसका नाम है वरूण देवता, यदि हम जल में निर्वस्त्र या नग्न होकर नहाते हैं तो वरूण देवता का अपराध हो जाता है,
ये अच्छी बात नहीं,

दूसरा अपराध है लौकिक, आप जल में नग्न या निर्वस्त्र स्नान करती हो, तुम नारी हो।

मानलो कोई मनचला व्यक्ति आकर तुम्हारे कपड़ो को किनारे से उठाकर ले जाये तो फिर बाहर कैसे निकलोगी? इसलिये मेरा आपसे निवेदन है कि ऐसे स्नान मत किया करो, गोपियां बोली, बड़े आयें हमें समझाने वाले, यहाँ चार बजे सवेरे कौन आवै? हम तो ऐसे ही न्हायेंगे, कृष्ण ने सोचा- ये ऐसे नहीं मानेगी, इनको तो यथार्थ में ही बताना पड़ेगा।

मित्रों! एक दिन गोपियां स्नान करने गयीं, पूरे वस्त्र उतारकर किनारे रख दिये, जै श्रीकृष्ण, जै श्रीकृष्ण करके नहा रही हैं, मेरे गोविन्द ने बढ़िया मौका देखकर गोपियों के पूरे वस्त्रों को लेकर के कदम्ब के ऊपर चढ़ गये, गोपियां तो नहा रही है आराम से, इतने में एक गोपी ने कहा- बहना अब नहाती ही रहोगी कि बाहर भी निकलोगी, कात्यायनी की पूजन भी तौ करनौ है।

जैसे ही निकलने के लिए तैयार हुई, किनारे की ओर देखा तो वस्त्र नहीं है, हे भगवान्, हमारे वस्त्रन् ने कौन लै गयौ? बिचारी कंठभर जल में खड़ी है, निकलें तो निकलें कैसे? गोपियों ने जब किनारे खड़े कदम्ब के वृक्ष पर नजर डालकर देखा तो कदम्ब की डाली पर श्रीमानजी बिराजे हुए हैं, कपड़े भी टंगे है, लाला, अरे ओ कन्हैया, हमारे वस्त्र आपने क्यूँ चुरा लिये।

कन्हैया बोले- मैंने कोई वस्त्र नहीं चुराये, बोली, कदम्ब पर टांग रखे है यही तो वस्त्र हैं, कन्हैया बोले- ये तो मेरे कदम्ब पै फूल आये हैं, गोपी बोली- इतने बड़े-बड़े फूल? हरे, पीले, लाल, नीले, बैंगनी, रंग-बिरंगे फूल? कन्हैया बोले- मेरो कदम्ब दुनियां से निरालो है, इस पर तो ऐसौ ही बडौ-बडौ फूल आवै।

श्यामसुन्दर ते दास्यः करवाम तवोदितम्।
देहिवासांसि धर्मज्ञ नो चेद् राज्ञे ब्रुवामहे।।

गोपियों ने कहा- लाला, आप जो कहोगे हम करेंगे, हमारे वस्त्र हमको दै दियौ, कन्हैया ने कही- सुनो, यदि ये कदम्ब पर तुम्हारे वस्त्र है और तुम्हें अपने वस्त्र चाहिये तौ एक ही काम हो सकता है, एक-एक गोपी जल से बाहर निकलकर कदम्ब के नीचे आवो और अपने कपड़े लेकर चली जाओ।

भवत्यो यदि मे दास्यो मयोक्तं वा करिष्यथ।
अत्रागत्य स्ववासांसि प्रतीच्छन्तु शुचिस्मिताः।।

गोपियां बोली- बाहर निकलने के योग्य तो हम है ही नहीं, यदि होती तो आपसे प्रार्थना ही क्यों करतीं? आप पूरे वस्त्रों को नीचे डालकर उधर चले जाओं फिर हम निकलकर पहन लेंगी, कन्हैया बोले- ऐसौ तो नांय हो सकै, यदि तुम्हें अपने वस्त्र चाहिये तो जल से बाहर निकलो और अपने-अपने वस्त्र लेकर चली जाओ।

जब आप बाहर आने योग्य अवस्था में न हों तो आप जलाशय में उस अवस्था मे स्वयं को जल में जाने योग्य कैसो समझ ली।

श्रीकृष्ण उनसे कहते हैं कि तुम निर्वस्त्र होकर स्नान करने गई ही क्यों थी?

गोपियों ने उत्तर दिया कि जब वे स्नान करने जा रही थीं तो वहां कोई नहीं था। श्रीकृष्ण ने उनसे कहा, ऐसा तुम्हें लगता है। क्योंकि आसमान में उड़ रहे पक्षियों ने तुम्हें नग्नावस्था में देखा, जमीन पर छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़ों ने तुम्हें निर्वस्त्र देखा, यही नहीं पानी के जीवों ने और साथ ही स्वयं वरुण देव ने तुम्हें निर्वस्त्र देखा है।

श्रीकृष्ण का आशय था कि भले ही हमें लगे कि हमें निर्वस्त्र अवस्था में किसी ने नहीं देखा लेकिन वास्तव में ऐसा संभव नहीं होता।

श्रीकृष्ण ने बताया था आखिर क्यों निर्वस्त्र स्नान नहीं करना चाहिए अब थोड़ा सिलसिलेवार बताते हैं।
हिन्दू धर्म
हिन्दू धर्म को कभी-कभी परंपरा का नाम भी दिया जाता है। अब यह धर्म है या एक परंपरा, ये बात पिछले काफी समय से विवाद का विषय रही है और ये विवाद अभी भी बदस्तूर जारी है। खैर हम किसी भी प्रकार के विवाद में ना पड़ते हुए आपको हिन्दू धर्म ग्रंथों में दर्ज कुछ ऐसी बातें बताने जा रहे हैं जो आपके जीवन को सफल बना सकती हैं।
निर्देश
विभिन्न हिन्दू धर्म ग्रंथों में बहुत सी उपयोगी बातों का जिक्र किया गया है, उन्हीं में से कुछ खास बातें या निर्देश हम आपको बताने जा रहे हैं।

स्नान करना
यूं तो स्नान करना हमारे नित्य कर्मों में शुमार है, स्नान करने के बाद ही शरीर शुद्ध होता है और इसके बाद ही वह कोई पवित्र या शुभ कार्य करने के लिए स्वतंत्र होता है। लेकिन पद्मपुराण के अंतर्गत स्नान करने से जुड़े कुछ नियमों का उल्लेख है जो स्वयं श्रीकृष्ण ने अपनी गोपियों से कहे थे।

निर्वस्त्र होकर स्नान
हम में से अधिकांश व्यक्ति पूर्णत: निर्वस्त्र होकर स्नान करते हैं लेकिन श्रीकृष्ण के अनुसार ऐसा कदापि नहीं करना चाहिए। पद्मपुराण के अंतर्गत निर्वस्त्र होकर स्नान करने को निषेध कर्म माना गया है। अब ऐसा क्यों, ये जानने की कोशिश करते हैं।

पद्मपुराण
पद्मपुराण में उस घटना का जिक्र है जब नदी में निर्वस्त्र होकर स्नान करने के लिए गोपियां जाती हैं और तब उनके वस्त्र श्रीकृष्ण चुरा लेते हैं।

श्रीकृष्ण
गोपियां, श्रीकृष्ण से बहुत प्रार्थना करती हैं कि वे उनके वस्त्र उन्हें लौटा दें लेकिन श्रीकृष्ण उन्हें स्वयं जल से बाहर निकलकर वस्त्र लेने के लिए कहते हैं।

नग्नावस्था
इस पर गोपियां उनसे विनम्रता से कहती हैं कि वे नग्नावस्था में जल से बाहर नहीं आ सकतीं तो श्रीकृष्ण उनसे कहते हैं कि तुम निर्वस्त्र होकर स्नान करने गई ही क्यों थी?

गोपियों ने उत्तर दिया कि जब वे स्नान करने जा रही थीं तो वहां कोई नहीं था। श्रीकृष्ण ने उनसे कहा, ऐसा तुम्हें लगता है। क्योंकि आसमान में उड़ रहे पक्षियों ने तुम्हें नग्नावस्था में देखा, जमीन पर छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़ों ने तुम्हें निर्वस्त्र देखा, यही नहीं पानी के जीवों ने और साथ ही स्वयं वरुण देव ने तुम्हें निर्वस्त्र देखा है।

श्रीकृष्ण का आशय था कि भले ही हमें लगे कि हमें निर्वस्त्र अवस्था में किसी ने नहीं देखा लेकिन वास्तव में ऐसा संभव नहीं होता।

पद्मपुराण में ही नहीं, इस बात का जिक्र गरुण पुराण में भी है। गरुण पुराण के अनुसार हमारे आसपास हमेशा हमारे पूर्वज रहते हैं। यहां तक कि जब हम निर्वस्त्र स्नान कर रहे होते हैं तो भी हमारे आसपास वो मौजूद होते हैं।

निर्वस्त्र स्नान
शरीर से गिरने वाले जल को वो ग्रहण करते हैं, इसी जल से उनकी तृप्ति होती है। जब हम निर्वस्त्र स्नान करते हैं तो वो अतृप्त रह जाते हैं। ऐसा होने से व्यक्ति का तेज, बल, शौर्य, धन, सुख और क्षमता का नाश होता है।
यही वजह है कि व्यक्ति को कभी भी निर्वस्त्र अवस्था में स्नान करने से परहेज रखना चाहिए।

यहाँ चार प्रकार की गोपियां है- शुद्र स्वभाव की, वैश्य स्वभाव की, ब्राह्मण स्वभाव की और क्षत्रिय स्वभाव की, शुद्र स्वभाव की कहती कि हे स्याम सुन्दर हम आपकी दासी है, आप जैसा कहेंगे वैसा करेंगे हमें हमारे कपड़े दे दो, वैश्य स्वभाव वाली कहती हम आपसे लड़ाई झगड़ा नहीं चाहती हमें अपने कपड़े दे दो, क्योंकि वैश्य लोग राजीपा ही करते हैं लड़ाई नहीं।

ब्राह्मण स्वभाव वाली कहती आप धर्मात्मा है आपके बाबा भी धर्मात्मा है, आपकी बड़ी कृपा होगी हमें हमारे कपड़े दे दो, चौथी है क्षत्रिय प्रकृति कि, हे श्याम सुन्दर कपड़े दे दो नहीं तो देख लेना, एक गोपी ने दूसरी गोपी को देखा, ये तो ब्रह्म है? ये तो भगवान् हैं इनके सामने हजार वस्त्र पहने तो भी सब निर्वस्त्र हैं, इनसे काहे का संकोच? जल से बाहर सब गोपियां आयीं, अपने वस्त्रों को लेकर चली गयीं।

चीरहरण के इस प्रसंग पर कुछ लोग कहते हैं कि ऐसा कृष्ण ने क्यों किया? कोई स्त्री नहा रही हो उसके वस्त्रों को लेकर कदम्ब पर चढ़ जाना ये कोई सभ्य पुरूष का लक्षण तो नहीं है, ये तो आचरणहीन पुरूष का लक्षण है, धर्म के संस्थापक कृष्ण ही जब ऐसे है फिर समाज पर इसका क्या असर होगा? सज्जनों! कृष्ण चरित्र की इस झांकी को हम तीन रूपों में देखे, ध्यान दिजिये- यदि श्रीकृष्ण भगवान् हैं तो भगवान् को कोई दोष नहीं लगता।

समरथ कहुं नहिं दोष गोसाई।
रवि पावक सुरसरि की नाई।।

तुलसीदासजी ने तो कहा- में समर्थ उसी को कहुँगा जिसमें कोई दोष नहीं हो, कपड़े चुरा कर ले गये और मांगा तो दे दिया, अब आप कहें यदि भगवान् मानव बनकर आये हैं तो ऐसा क्यों किया? ये तो कामी पुरुष का लक्षण है, यदि श्रीकृष्ण को हम मनुष्य ही समझें तो भी इसमें कोई दोष नहीं है, कृष्ण ने गोपियों के वस्त्र जब चुराये तब से उनकी उम्र थी साढ़े पांच वर्ष की।

और साढ़े पांच वर्ष के बालक के मन में काम की भावना नहीं होती, साढ़े पांच वर्ष का क्या जाने काम वासना को? वस्त्र चुराकर ले गये और मांगा तो दे दिया, तीसरा भाव बड़ा सुन्दर है, कृष्ण है ईश्वर, गोपी है जीव, वस्त्र है अविधा, कृष्ण रूपी ईश्वर ने जीव रूपी गोपियों के अविधा रूपी वस्त्र को चुराया, किसी लहंगा-फरिया को नहीं चुराया, उस अविधा रूपी वस्त्र में ज्ञान भरकर उन्हें वापिस कर दिया, ये ही चीरहरण की लीला का एक तात्पर्य है।

मित्रों! परमात्मा मेरे ह्रदय में हैं और परमात्मा आपके ह्रदय में भी हैं, पर ना आपको दीखता है ना मुझे दीखता है क्यों? क्योंकि परमात्मा के और हमारे बीच में अज्ञान का एक काला पर्दा पड़ा है, ये काला पर्दा हटे तो परमात्मा के दर्शन हो।

 हरे कृष्ण ।

Saturday, 24 October 2020

Shri Damodarashtakam

 



 


 

 नमामीश्वरं सच्चिदानंदरूपं
लसत्कुण्डलं गोकुले भ्राजमानं
यशोदाभियोलूखलाद्धावमानं
परामृष्टमत्यं ततो द्रुत्य गोप्या ॥ १॥

जिनके कपोलों पर दोदुल्यमान मकराकृत कुंडल क्रीड़ा कर रहे है, जो गोकुल नामक अप्राकृत चिन्मय धाम में परम शोभायमान है, जो दधिभाण्ड (दूध और दही से भरी मटकी) फोड़ने के कारण माँ यशोदा के भय से भीत होकर ओखल से कूदकर अत्यंत वेगसे दौड़ रहे है और जिन्हें माँ यशोदा ने उनसे भी अधिक वेगपूर्वक दौड़कर पकड़ लिया है ऐसे उन सच्चिदानंद स्वरुप, सर्वेश्वर श्री कृष्ण की मै वंदना करता हूँ ।

रुदन्तं मुहुर्नेत्रयुग्मं मृजन्तम्
कराम्भोज-युग्मेन सातङ्क-नेत्रम्
मुहुः श्वास-कम्प-त्रिरेखाङ्क-कण्ठ
स्थित-ग्रैवं दामोदरं भक्ति-बद्धम् ॥ २॥

जननी के हाथ में छड़ी देखकर मार खानेके भय से डरकर जो रोते रोते बारम्बार अपनी दोनों आँखों को अपने हस्तकमल से मसल रहे हैं, जिनके दोनों नेत्र भय से अत्यंत विव्हल है, रोदन के आवेग से बारम्बार श्वास लेनेके कारण त्रिरेखायुक्त कंठ में पड़ी हुई मोतियों की माला आदि कंठभूषण कम्पित हो रहे है, और जिनका उदर (माँ यशोदा की वात्सल्य-भक्ति के द्वारा) रस्सी से बँधा हुआ है, उन सच्चिदानंद स्वरुप, सर्वेश्वर श्री कृष्ण की मै वंदना करता हूँ ।

इतीदृक् स्वलीलाभिरानंद कुण्डे
स्व-घोषं निमज्जन्तम् आख्यापयन्तम्
तदीयेशितज्ञेषु भक्तिर्जितत्वम
पुनः प्रेमतस्तं शतावृत्ति वन्दे ॥ ३॥

जो इस प्रकार दामबन्धनादि-रूप बाल्य-लीलाओं के द्वारा गोकुलवासियों को आनंद-सरोवर में नित्यकाल सरावोर करते रहते हैं, और जो ऐश्वर्यपुर्ण ज्ञानी भक्तों के निकट "मैं अपने ऐश्वर्यहीन प्रेमी भक्तों द्वारा जीत लिया गया हूँ" - ऐसा भाव प्रकाश करते हैं, उन दामोदर श्रीकृष्ण की मैं प्रेमपूर्वक बारम्बार वंदना करता हूँ ।

वरं देव! मोक्षं न मोक्षावधिं वा
न चान्यं वृणेऽहं वरेशादपीह
इदं ते वपुर्नाथ गोपाल बालं
सदा मे मनस्याविरास्तां किमन्यैः ॥ ४॥

हे देव, आप सब प्रकार के वर देने में पूर्ण समर्थ हैं। तो भी मै आपसे चतुर्थ पुरुषार्थरूप मोक्ष या मोक्ष की चरम सीमारूप श्री वैकुंठ आदि लोक भी नहीं चाहता और न मैं श्रवण और कीर्तन आदि नवधा भक्ति द्वारा प्राप्त किया जाने वाला कोई दूसरा वरदान ही आपसे माँगता हूँ। हे नाथ! मै तो आपसे इतनी ही कृपा की भीख माँगता हूँ कि आपका यह बालगोपालरूप मेरे हृदय में नित्यकाल विराजमान रहे। मुझे और दूसरे वरदान से कोई प्रयोजन नहीं है।

इदं ते मुखाम्भोजम् अत्यन्त-नीलैः
वृतं कुन्तलैः स्निग्ध-रक्तैश्च गोप्या
मुहुश्चुम्बितं बिम्बरक्ताधरं मे
मनस्याविरास्तामलं लक्षलाभैः ॥ ५॥

हे देव, अत्यंत श्यामलवर्ण और कुछ-कुछ लालिमा लिए हुए चिकने और घुंघराले लाल बालो से घिरा हुआ तथा माँ यशोदा के द्वारा बारम्बार चुम्बित आपका मुखकमल और पके हुए बिम्बफल की भाँति अरुण अधर-पल्लव मेरे हृदय में सर्वदा विराजमान रहे । मुझे लाखों प्रकार के दूसरे लाभों की आवश्यकता नहीं है।

नमो देव दामोदरानन्त विष्णो
प्रभो दुःख-जालाब्धि-मग्नम्
कृपा-दृष्टि-वृष्ट्याति-दीनं बतानु
गृहाणेष मामज्ञमेध्यक्षिदृश्यः ॥ ६॥

हे देव! हे (भक्तवत्सल) दामोदर! हे (अचिन्त्य शक्तियुक्त) अनंत! हे (सर्वव्यापक) विष्णो! हे (मेरे ईश्वर) प्रभो! हे (परमस्वत्रन्त) ईश! मुझपर प्रसन्न होवे! मै दुःखसमूहरूप समुद्र में डूबा जा रहा हूँ। अतएव आप अपनी कृपादृष्टिरूप अमृतकी वर्षाकर मुझ अत्यंत दीन-हीन शरणागत पर अनुग्रह कीजिये एवं मेरे नेत्रों के सामने साक्षात् रूप से दर्शन दीजिये।

कुबेरात्मजौ बद्ध-मूर्त्यैव यद्वत्
त्वया मोचितौ भक्ति-भाजौ कृतौ च
तथा प्रेम-भक्तिं स्वकां मे प्रयच्छ
न मोक्षे ग्रहो मेऽस्ति दामोदरेह ॥ ७॥

हे दामोदर! जिस प्रकार अपने दामोदर रूप से ओखल में बंधे रहकर भी (नलकुबेर और मणिग्रिव नामक) कुबेर के दोनों पुत्रों का (नारदजी के श्राप से प्राप्त) वृक्षयोनि से उद्धार कर उन्हें परम प्रयोजनरूप अपनी भक्ति भी प्रदान की थी, उसी प्रकार मुझे भी आप अपनी प्रेमभक्ति प्रदान कीजिये - यही मेरा एकमात्र आग्रह है। किसी भी अन्य प्रकार के मोक्ष के लिए मेरा तनिक भी आग्रह नहीं है ।

 

 

नमस्तेऽस्तु दाम्ने स्फुरद्-दीप्ति-धाम्ने
त्वदीयोदरायाथ विश्वस्य धाम्ने
नमो राधिकायै त्वदीय-प्रियायै
नमोऽनन्त-लीलाय देवाय तुभ्यम् ॥ ८॥

हे दामोदर! आपके उदर को बाँधनेवाली महान रज्जू (रस्सी) को प्रणाम है। निखिल ब्रह्मतेज के आश्रय और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के आधारस्वरूप आपके उदर को नमस्कार है। आपकी प्रियतमा श्रीराधारानी के चरणों में मेरा बारम्बार प्रणाम है और हे अनंत लीलाविलास करने वाले भगवन! मैं आपको भी सैकड़ो प्रणाम अर्पित करता हूँ।