Friday, 19 March 2021

 

भगवान् के भक्तों को कष्ट क्यों ?

एक पश्न अक्सर भक्तों से पूछा जाता है की भगवान् के भक्तों को कष्ट क्यों होते हैं क्या भगवान् अपने भक्तों से प्यार नहीं करते ? या फिर हम भगवान् की पूजा करते हैं तो भी हम सुखी नहीं है या हम तो भगवान् को बहुत सेवा करते हैं लेकिन भगवान् हमारी सुनते नहीं है इत्यादि प्रश्न करने वाले बहुत से लोग मिल जायेगे, तो इसका उत्तर क्या हो सकता है ?

आज जब मैं भक्ति वृक्ष की कक्षा मैं भाग ले रहा था तो मुझे इस प्रश्न का उत्तर बड़ी सरलता से मिल गया - आज भगवत गीता के एक श्लोक की चर्चा हो रही थी -

अर्जुन भगवान् से प्रश्न कर रहे हैं -

चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् |
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् || ३४ ||

हे कृष्ण! चूँकि मन चंचल (अस्थिर), उच्छृंखल, हठीला तथा अत्यन्त बलवान है, अतः मुझे इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन लगता है |

तात्पर्य : मन इतना बलवान् तथा दुराग्रही है कि कभी-कभी यह बुद्धि का उल्लंघन कर देता है, यद्यपि उसे बुद्धि के अधीन माना जाता है | इस व्यवहार-जगत् में जहाँ मनुष्य को अनेक विरोधी तत्त्वों से संघर्ष करना होता है उसके लिए मन को वश में कर पाना अत्यन्त कठिन हो जाता है | कृत्रिम रूप में मनुष्य अपने मित्र तथा शत्रु दोनों के प्रति मानसिक संतुलन स्थापित कर सकता है, किन्तु अंतिम रूप में कोई भी संसारी पुरुष ऐसा नहीं कर पाता, क्योंकि ऐसा कर पाना वेगवान वायु को वश में करने से भी कठिन है | वैदिक साहित्य (कठोपनिषद् १.३.३-४) में कहा गया है  

प्रत्येक व्यक्ति इस भौतिक शरीर रूपी रथ पर आरूढ है और बुद्धि इसका सारथी है | मन लगाम है और इन्द्रियाँ घोड़े हैं | इस प्रकार मन तथा इन्द्रियों की संगती से यह आत्मा सुख तथा दुख का भोक्ता है | ऐसा बड़े-बड़े चिन्तकों का कहना है |” यद्यपि बुद्धि को मन का नियन्त्रण करना चाहिए, किन्तु मन इतना प्रबल तथा हठी है कि इसे अपनी बुद्धि से भी जीत पाना कठिन हो जाता है  |

अब जब हमारा मन हमारी बुद्धि की नहीं सुनता तो हम अपने मन की मनमानी करने लगते हैं और हम कष्ट उठाते हैं| अपने मन को कैसे वश मैं करें ? जैसे कार की स्टीअरिंग मन है और ड्राईवर बुद्धि है यदि ड्राईवर के अनुसार कार नहीं चलेगी कार, ड्राईवर और उसमें बैठे हुए यात्रिओं को कष्ट हो सकता है | अर्थात अपने मन को बुद्धि के अनुसार चलाना बहुत ही जरूरी है तो  भगवान् भगवान् भगवद्गीता के ९.३४ मैं  कहते है 

मन्मनाभवमद्भक्तोमद्याजीमांनमस्कुरु |

मामेवैष्यसियुक्त्वैवमात्मनंमत्परायणः || ३४ ||

अपने मन को मेरे नित्य चिन्तन में लगाओ, मेरे भक्त बनो, मुझे नमस्कार करो और मेरी ही पूजा करो | इस प्रकार मुझमें पूर्णतया तल्लीन होने पर तुम निश्चित रूप से मुझको प्राप्त होगे |

अर्थात भगवान् कहते हैं की अपने मन की लगाम मेरे हाथ मैं दे दो क्योंकि वो सारथी हैं अर्जुन के भी वो ही सारथी थे, तो सारथी के हाथ मैं दो वस्तुएं होती है-

१. लगाम 

२. चाबुक 

 जब घोड़े लगाम को नहीं मानते तो भगवान् का चाबुक चलता  है और अब चाबुक चलता है तो कष्ट तो होगा ही

इस प्रकार हम समझ सकते है कि यदि भक्तों के ऊपर कोई कष्ट आ रहा है तो भगवान् का चाबुक चल रहा है लेकिन वो हमारे भले के लिए है, उससे हमें घबराना नहीं चाहिए | भगवान् ठोक पीटकर हमारे मन को हमारी बुद्धि के अनुसार चलाना चाहते है जिस से हम सुखी रहे |

भगवद गीता मैं भगवान्  १८.६५ मैं पुन: दोहरा रहे हैं -

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे || ६५ ||

सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो |  

ये शब्द इस बात पर बल देते हैं कि मनुष्य को अपना मन उस कृष्ण पर एकाग्र करना चाहिए जो दोनों हाथों में वंशीधारण किये, सुन्दर मुखवाले तथा अपने बालों में मोर पंख धारण किये हुए साँवले बालक के रूप में हैं | कृष्ण का वर्णन ब्रह्मसंहिता तथा अन्य ग्रथों में पाया जाता है | मनुष्य को परम ईश्र्वर के आदि रूप कृष्ण पर अपने मन को एकाग्र करना चाहिए | उसे अपने मन को भगवान् के अन्य रूपों की ओर नहीं मोड़ना चाहिए | भगवान् के नाना रूप हैं, यथा विष्णु, नारायण,राम, वराह आदि | किन्तु भक्त को चाहिए कि अपने मन को उस एक रूप पर केन्द्रित करे जो अर्जुन के समक्ष था | कृष्ण के रूप पर मन की यह एकाग्रता ज्ञान का गुह्यतम अंश है जिसका प्रकटीकरण अर्जुन के लिए किया गया, क्योंकि वह कृष्ण का अत्यन्त प्रिय सखा है |

दोनों श्लोकों के पहली लाइन एक जैसी है, ये इतनी महत्वपूर्ण बात है कि भगवान् दोहरा रहे हैं  अर्थात बार बार कह रहे हैं अपने मन मुझे दे दो  | अपना मन भगवान् की बुद्धि से चलाओ और सुखी रहो  |

अवधेश पराशर