Sunday, 18 July 2021

विट्ठल रुकमाई (कृष्ण रुकमनी ) पंढरपुर वारी

Ketan's Blog: A Cycle Wari To Pandharpur : Vitthal Vitthal, Jai Hari Vitthal

हरे कृष्ण,

देश के एक पश्चिमी राज्य में एक ऐसी यात्रा निकलती है, जो अपने आप में ऐतिहासिक यात्रा है। इस यात्रा में हजारों की संख्या में नहीं और एक, दो, तीन लाख नहीं, अपितु 5 लाख से भी अधिक लोग 10, 20, 50 नहीं, बल्कि 250 कि.मी. लंबी पदयात्रा करते हैं। यह पदयात्रा करके वह अपने इष्ट भगवान विट्ठल के दर्शन करने पहुँचते हैं और दर्शन करके धन्यता का अनुभव करते हैं। यह यात्रा हर साल अषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को प्रारंभ होती है और इस यात्रा को ‘वैष्णवजनों का कुंभ’ भी कहा जाता है।

Maharashtra's 800-Year-Old Pandharpur Wari: Rising Above Caste, Patriarchy  And Religion | Youth Ki Awaaz
देश का यह पश्चिमी राज्य है महाराष्ट्र । इस राज्य में पिछले लगभग 700 वर्षों से पंढरपुर यात्रा का आयोजन होता आ रहा है । महाराष्ट्र में भीमा नदी के तट पर बसा पंढरपुर शोलापुर जिले का हिस्सा है । अषाढ़ माह में देश के कोने-कोने से यहाँ लोग पताका-डिंडी लेकर पदयात्रा करते हुए पहुँचते हैं। इस यात्रा के लिये अधिकांश लोग अलंडी में एकत्र होते हैं और पूना तथा जजूरी होते हुए पंढरपुर जाते हैं। इन्हें ‘ज्ञानदेव माउली की डिंडी’ या ‘दिंडी’ कहा जाता है । 

Pandharpur Wari Pilgrimage: Of Saints, Sandals and Salvation | Sahapedia

1000 साल पुरानी है पालकी प्रथा

 पंढरपुर यात्रा से पहले महाराष्ट्र के कुछ संतों ने लगभग 1000 साल पहले पालकी प्रथा प्रारंभ की थी । उनके अनुयायियों को ‘वारकारी’ कहते हैं, जिन्होंने इस प्रथा को अभी तक जीवित रखा है । वारकारियों का एक संगठित दल यात्रा के दौरान नृत्य और कीर्तन करते हुए महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध संत तुकाराम की कीर्ति का गुणगान करता है । यह कीर्तन दल अलंडी से देहु होते हुए तीर्थनगरी पंढरपुर तक पैदल चलता है । पंढरपुर की यात्रा जून माह में शुरू होती है और 22 दिन तक चलती है।  

Pandharpur Wari….a sacred journey | Aditya Waikul

वारी का इतिहास

पंढरपुर यात्रा की एक विशेषता उसकी ‘वारी’ है । वारी अर्थात् सालों साल तक लगातार यात्रा करना । इस यात्रा हर वर्ष शामिल होने वाले लोगों को ‘वारकरी’ कहा जाता है । यह अब एक संप्रदाय बन चुका है जो ‘वारकरी संप्रदाय’ के नाम से जाना जाता है । इस वारी का जब से आरंभ हुआ है, तब से पीढ़ी दर पीढ़ी इस संप्रदाय के हर परिवार के लोग हर साल वारी के लिये निकलते हैं । महाराष्ट्र में अनेक स्थानों पर वैष्णव संतों का निवास रहा है अथवा उनके समाधि स्थल हैं । इन स्थानों से उन वैष्णव संतों की पालकी वारी के लिये प्रस्थान करती है । अषाढ़ी एकादशी को पंढरपुर पहुँचने का उद्देश्य दृष्टि सन्मुख रखते हुए अंतर के अनुसार हर पालकी की यात्रा का अपना कार्यक्रम सुनिश्चित होता है । इस मार्ग पर कई पालकियाँ एक दूसरे से मिलती हैं और उनका एक विशाल कारवाँ बन जाता है । वारी में दो प्रमुख पालकियाँ होती हैं । उनमें एक संत ज्ञानेश्वरजी तथा दूसरी संत तुकाराम की होती है । 18 से 20 दिन की पैदल यात्रा करके वारकरी ‘देवशयनी एकादशी’ के दिन पंढरपुर पहुँच जाते हैं । वारी बनना या वारी में शामिल होना एक परिवर्तन का आरंभ है । कोई वैष्णव हो अथवा न हो, वारी बनने के लिये उसे एक बार वारी के साथ यात्रा करने का अनुभव लेना जरूरी होता है । वारी से जुड़ने के बाद मनुष्य के विचारों में परिवर्तन होता है, जिससे उसके आचरण में भी परिवर्तन हो जाता है । क्योंकि वारी का उद्देश्य ईश्वर के पास पहुँचना है । वारी में दिन-रात भजन-कीर्तन, नाम-स्मरण चलता रहता है । अपने घर, कामकाज की अर्थात् जीवन की सभी समस्याओं को पीछे छोड़कर वारकरी वारी के लिये चल पड़ते हैं, किन्तु वारकरी दैववादी नहीं होता है, बल्कि प्रयत्नवाद को मानकर अपने क्षेत्र में (खेती या व्यवसाय) अच्छा काम करता है, क्योंकि हर काम में वह ईश्वर के दर्शन करता है ।

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वारी का अपना व्यवस्थापन

वारी का एक अलग व्यवस्थापन होता है । हर वारकरी किसी न किसी दिंडी का सदस्य होता है । एक छोटे किंतु संगठित समूह को दिंडी कहते हैं । हर दिंडी को एक क्रमांक दिया जाता है । वारी की पूरी यात्रा में इस दिंडी का स्थान निश्चित रहता है । किसी भी दिंडी को अनुशासन भंग करने की अनुमति नहीं होती है । एक गाँव से दूसरे गाँव जाने का समय भी सुनिश्चित होता है । यदि कोई समय पर अपनी दिंडी में न पहुँच पाए तो वारी उसके लिये बिना रुके आगे निकल जाती है । हर दिंडी का एक प्रमुख होता है । उसी के नाम से दिंडी पहचानी जाती है । एक दिंडी में डेढ़ सौ से दो सौ लोग होते हैं । वारी में शामिल होते ही हर सदस्य अपनी-अपनी दिंडी के प्रमुख को अपने आने की सूचना देता है और खर्च करने के लिये तय की गई रकम उसे सौंप देता है । इसके बाद उस सदस्य की पूरी जिम्मेदारी वारी के प्रमुख की होती है । यह सिलसिला पंढरपुर पहुँचने तक चलता है । सामान ढोने के लिये हर दिंडी के लिये एक ट्रक या टेंपो साथ में होता है । प्रति दिन रात्रि विश्राम का स्थान पहले से तय होता है । दिंडी के प्रमुख वहाँ पहले से पहुँचकर अपने सदस्यों की व्यवस्था करते हैं । 700 वर्षों में कभी यह सुनने में नहीं आया है कि दिंडी का प्रमुख पैसे लेकर भाग गया हो या उसने कोई धाँधली की हो ।

GoodKnight & Iodex aid the pilgrims at Pandharpur Wari

गाँव-गाँव, नगर-नगर पालकी का स्वागत

हर नगर, हर गाँव में पालकी का कहाँ स्वागत होगा, कौन स्वागत करेगा, इसकी भी परंपरा बन गई है । पालकी का निवास उस नगर के सबसे बड़े मंदिर में होता है । अन्य दिंडियाँ अलग-अलग मंदिरों, धर्मशालाओं में विश्राम करती हैं । वारी में हर साल लाखों लोग शामिल होते हैं, किंतु फिर भी यह कारवाँ सुनियोजित ढंग से सैकड़ों सालों से लगातार चलता आ रहा है । वारी की हर दिंडी एक परिवार जैसी बन गई है । दिंडी के सदस्य अलग-अलग गाँवों के होते हैं । वारी के बाद भी उनका आपस में संपर्क बना रहता है । अपनी-अपनी खाने-पीने की वस्तुएँ आपस में बाँटते हैं, बूढ़े लोग आपस में बातें करते हैं, सास-बहू अन्य महिलाओं के साथ अपने सुख-दुःख बाँटती हैं । दिंडी में कभी कोई घर्षण हुआ, हाथापाई हुई या दो डिंडियों में संघर्ष हुआ, ऐसा कभी सुनाई नहीं दिया । पंढरपुर की वारी में कई राज्यों से भक्तगण हर साल आते हैं । पंढरपुर में पांडुरंग, वैष्णव तथा शिव का एकाकार है । इसीलिये यह तीर्थ क्षेत्र महान है । अषाढ़ी एकादशी के दिन लगभग 12 लाख लोग पंढरपुर के सुप्रसिद्ध विट्ठल मंदिर में पहुँचकर भगवान विट्ठल और माता रुक्मणी के दर्शन करेंगे ।

 

अवधेश पाराशर 
माइक्रोचिप कंप्यूटर प्रशिक्षण केंद्र
अतरौली (अलीगढ )