Monday, 27 April 2020

क्या आपने भगवान् को देखा है ?

क्या आपने ईश्वर को देखा है या क्या आप मुझे ईश्वर को दिखा सकते हैं ?
आप भी ईश्वर  को देख सकते, हर व्यक्ति ईश्वर को देख सकता लेकिन आपमें योग्यता होनी चाहिए ।

यदि आप कौन बनेगा करोडपति मैं जाना  चाहते हैं तो आपको उसमें जाने की योग्यता होनी चाहिए बिना योग्यता के आप उसमें भी नहीं जा सकते इसके अतिरिक्त आपको ठीक प्रकार से वस्त्र आभूषण इत्यादी धारण करने होंगे और आपको कैसे बैठना है, कैसे बात करनी है, हाथ कैसे मिलाना है, कैसे दर्शकों का अभिवादन करना है सारे नियम मानने होते हैं. वहां बैठकर आप धूम्रपान, गुटखा नहीं खा सकते , शराब नहीं पी सकते और अनर्गल बातें भी नहीं कर सकते ।
इसी प्रकार जब आप किसी अधिकारी से मिलने जाते हैं या किसे मंत्री से मिलने जाते हैं तो पहले आपको appointment लेना होता है और निश्चित समय पर सारे protocol मानने पड़ते हैं तब ही आप मिल पाते हैं । इसी प्रकार भगवान् से मिलने के लिए आपको सारे प्रोटोकॉल का पालन करना होगा तब ही आप भगवान् को मिल या देख सकते हैं इसके बिना नहीं । आप कैसे सोच सकते हैं जो सारी सृष्टि का स्वामी है वो आपसे  ऐसे ही मिल लेगा या आपको दर्शन भी दे देगा । आप कितने भी कष्ट मैं हों एक साधारण देश का प्रधानमंत्री भी बिना किसी नियम के आपकी सहायता नहीं कर सकता तो आप भगवान् से कैसे आशा रख सकते हैं की वो आपके सारे कष्ट दूर कर देगा ? इसके लिए आपको proper channel जाना पड़ेगा । कैसे ?

भगवान् त्रिगुणातीत हैं 
हमारी प्रकृति तीन गुणों के अधीन हैं १. सतोगुण २. रजोगुण ३.तमोगुण ब्रह्माजी सतोगुण के अधीन हैं, देवता रजोगुण और मनुष्य तमोगुण या तीनों मिश्रित गुणों के अधीन हैं ।  हमें तमोगुण से रजोगुण और रजोगुण से सतोगुण मैं आना होगा और रजोगुण से ऊपर उठने पर है हम भगवान् को अनुभव कर सकते हैं देख सकते हैं तब ही भगवान् को देखने के बिषय मैं सोच सकते हैं ।  यदि हम भगवान् को देखना या अनुभव करना चाहते हैं तो हमें भी तीन गुणों से ऊपर उठना होगा ।अर्थात हमें पवित्र बनना होगा ।
ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोअपी वा |
य: स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स बाहान्तर : शुचि: ||

अर्थात हमें अपने आप को बाहर और आंतरिक रूप से शुद्ध करना होगा बाहरी रूप से शुद्धि के लिए दिन मैं तीन बार स्नान करना चाहिए और आन्तरिक शुद्धि के लिए हरे कृष्ण महामंत्र का जप और कीर्तन करके ह्रदय को शुद्ध करना चाहिए । जिससे हम अपने मूल स्वाभाव मैं स्थित हो  सकें । अपनी मूल स्थिति मैं स्थित रहकर जीव प्रकृति के तीन गुणों से अप्रभावित रहता है । स गुणान्समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते।। भगवत गीता 14.26।। तीनों गुणों के प्रभाव से मुक्त होते ही वह ब्रह्म पद पर आसीन हो जाता है । ऐसे महापुरुष भगवान् को समझ सकते हैं लेकिन प्रकृति के प्रभाव से मुक्त न होने के कारण बद्ध जीव परम पुरुष की अनुभूति नहीं कर सकता । इसलिए भगवत गीता (२.४५) मैं अर्जुन को उपदेश देते हैं -
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन |
 निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् || ४५ ||
वेदों में मुख्यतया प्रकृति के तीनों गुणों का वर्णन हुआ है | हे अर्जुन! इन तीनों गुणों से ऊपर उठो | समस्त द्वैतों और लाभ तथा सुरक्षा की सारी चिन्ताओं से मुक्त होकर आत्म-परायण बनो | जो तीनों गुणों के प्रभाव मैं बना रहता है वह भगवान् को समझने मैं असमर्थ रहता हैं
श्री यामुनाचार्य ने अपने स्तोत्र रत्न(४३) मैं निम्नलिखित श्लोक दिया है 
भवन्तं एवानुचारम निरंतर:
प्रशंतनि:शेषमनोरथानतर:
आपकी नित्य सेवा करने से मनष्य सभी भौतिक इच्छाओं से मुक्त हो जाता है और पूर्णतया शांत रहता है । हे भगवन ! कब वह समय आएगा जब मैं आपका स्थायी नौकर बनकर और आप जैसा उपयुक्त स्वामी पाकर सदैव प्रसन्न रह सकूंगा ?  जो मन की इच्छा पूरी करने के लिए कर्म करता है उसे भौतिक कार्य करने ही पड़ते हैं। किन्तु भगवान् तथा उसके शुद्ध भक्तों मैं भौतिक इच्छाएं सर्वदा अनुपस्थित रहती हैं
स्वयं भगवान् का कथन है (भ०गी० १८.६६) 

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।

"सारे  धर्मों का परित्याग करके मेरी शरण मैं आओ । मैं सारे पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूंगा । डरो मत " भगवान् किसी भी व्यक्ति के पापों के फलों को ग्रहण करके उनका निराकरण कर सकते हैं क्योंकि वे सूर्य के सामान पवित्र है जो कभी भी सांसारिक स्पर्श से दूषित नहीं होता । तेजीयसाम न दोषाय.... ( भागवतम १०.३३.२९) जो अत्यंत शक्तिमान हैं वह किसी पापकर्म से दूषित नहीं होता । इस प्रकार हम सभी प्रकार से भगवान् की शरण ग्रहण करें जो परम पवित्र हैं तो हम भी पवित्र हो जायेंगे, और जब हम पवित्र हो सकेंगे तब ही भगवान् को अनुभव कर सकेंगे । 

तमोगुण का त्याग कैसे करें ?

इस कलियुग मैं सामान्यतया सभी लोग तमोगुण मैं स्थित हैं तमोगुण से ऊपर उठाने के लिए सबसे पहले हमें तामसिक वस्तुओं का त्याग करना होगा  । आप इस प्रकार प्रैक्टिकल कर सकते हैं
१. टी. वी. , सिनेमा का पूर्ण रूप से त्याग करना होगा, क्या से संभव है? वास्तव मैं इन वस्तुओं की कोई आवश्यकता ही नहीं है जिन्होंने इसे बनाया वो ही इसे Idiot box  कहते हैं क्योंकि ये हमें मूर्ख बनाता  है हम वो सोचते हैं जो ये हमें सोचने पर मजबूर करता है । यदि आपको लगता है की टी.वी. नहीं देखेंगे तो अपडेट कैसे रहेंगे तो आप इन्टरनेट का प्रयोग कर सकते हैं अपडेट होने के लिए या आप ३० मिनट या ६० मिनट का समय निर्धारित कर सकते हैं की इसी समय देखेंगे अन्यथा नहीं, बच्चों को तो विशेष रूप से १ घंटा से अधिक टी.वी. नहीं देखने देना चाहिए
२. बाहर के खाद्य पदार्थों के त्याग - ये संभव है हम बढ़िया से बढ़िया खा सकते हैं कोशिश करें की सभी को घर मैं तैयार करें और भगवान् को भोग लगाकर ग्रहण करें । जब भगवान् को भोग लगेगा तो वह वास्तु प्रसाद बन जायेगी और प्रसाद पाने से शरीर और मन दोनों शुद्ध होते हैं । जैसा खाओगे अन्न वैसा बने मन । आप ये तो मानते ही होंगे की घर का बना भोजन शुद्ध होता है तो शुद्ध खाने मैं क्या हानि है बस  इसका भगवान् को भोग और लगा दो, लो बन गया प्रसाद और तीन समय भोग लगाकर खाएं
३.शास्त्रों का अध्ययन - नियमित शास्त्रों का अध्ययन करें जिससे हमारे मन मैं सात्विक विचारों का उदय हो सके और तमोगुणी वस्तुओं और विचारों से दूर रह सकते हैं । बच्चों को प्राचीन भारतीय इतिहास पढ़ने के लिए प्रेरित करें और उनको सही परिप्रेक्षय मैं समझें टी.वी. देखकर नहीं पढ़कर शास्त्रों को समझें । रामायण और महाभारत टी.वी. पर  मत देखो पहले उसे पढो फिर वो ठीक से समझ मैं आयेगा वर्ना आप उनको मनगढ़ंत कहानियां मानोगे । शास्त्रों मैं विज्ञानं है आप उस विज्ञानं को समझें  
४. भगवान् के विषय मैं श्रवण - यदि हम भगवान् से सम्बंधित कथाओं  को सुनें चाहे वो प्रत्यक्ष हों या इन्टरनेट या अन्य किसी भी माध्यम से सुनें तो तो भी तामसिक विचारों से दूर हो सकते हैं
५. नियमित हरे कृष्ण मंत्र का जप करें । प्रातः ८ बजे से पहले नियमित हरे कृष्ण महामंत्र का जप करें इस से आपको जीवन मैं शांति का अनुभव होगा और भगवान् की निकटता का अनुभव होगा क्योंकि कलियुग मैं भगवान् ने अपनी सारी शक्तियां नाम मैं रख दी हैं आप जब भी भगवान् का नाम लेते हैं आप भगवान् की सेवा करते हैं और भगवान् क्या कोई भी व्यक्ति अपनी सेवा से प्रसन्न होता ही है

यदि आपको लगता है की इस से क्या होगा तो अधिक नहीं आप १ माह करें फिर आप स्वयं अपने आप मैं परिवर्तन महसूस करेंगे । तमोगुणी विचारों और वस्तुओं से दूर रहने का प्रभाव ये होगा की आपने मन मैं सतोगुणी विचार उत्पन्न होंगे शुरू होंगे आप कोई भी दान, पुण्य, पूजा, पाठ या आपको जो पाखंड लगता हो मत करें बस तमोगुण से दूर रहे निश्चित ही आपने जीवन मैं  सकारात्मक परिवर्तन शुरू होंगे  और ये आपको काफी आनंददायक लगेगा  और भगवान् के निकट ले जाएगा 
 
अन्य लेख पढने के लिए क्लिक करें
https://avadheshjee.blogspot.com/

हरे कृष्ण,
दंडवत,
अवधेश पाराशर 


Monday, 20 April 2020

श्रीमद भगवतगीता क्यों पढ़ें ?

हरे कृष्ण,
यदि धर्म के बारे मैं जानना चाहते हैं शास्त्र अवश्य पढ़ने चाहिए लेकिन प्रश्न ये है की कौन सा शास्त्र पढ़ें और कहाँ के शुरुआत करें क्योंकि हिन्दुओं मैं काफी confusion हैं तो आज हम शास्त्रों के सम्बन्ध मैं संक्षिप्त चर्चा करते हैं -

  1. ऋग्वेद
  2. यजुर्वेद
  3. सामवेद
  4. अथर्व वेद
  5. २५० उपनिषद  
  6. २० धर्मशास्त्र
  7. १८ पुराण 
  8. रामायण 
  9. महाभारत

ये सनातन धर्म के प्रधान शास्त्र हैं और इनके आधार पर जो पुस्तकें लिखी गई हैं वो भी शास्त्र की श्रेणी मैं ही आती हैं ।
वेदों मैं क्या है ?
वेद शब्द विद धातु से आया है जिसका अर्थ है जानना अर्थात ज्ञान विज्ञानं, वेदों मैं विज्ञान है उसमें physics, chemistry, dance, music, medical science, jyotish, etc. सभी ज्ञान है । आप बाजार से खरीद कर वेद नहीं पढ़ सकते क्योंकि उनको पढने का एक तरीका होता है । जैसे आप घर बैठे हाई स्कूल  या इंटरमीडिएट की पढ़ाई नहीं कर सकते आपको किसी स्कूल मैं जाकर प्रवेश लेना होगा जो किसी बोर्ड या यूनिवर्सिटी से मान्यता प्राप्त हो । उसी प्रकार वेद पढ़ने के लिए पहले आपको १२ बर्ष व्याकरण पढनी होगी अन्यथा आप आप समझ नहीं सकते । व्याकरण पढने के बाद आपको धर्म शास्त्र पढ़ने होंगे जिनकी संख्या २० है उसमें ६-८ बर्ष लगेंगे तब आप वेद पढना शुरू करेंगे और एक वेद पढने के लिए आपको कम से कम १२ बर्ष का समय लगेगा तो आप सोच सकते हैं चारों वेद पढने के लिए कितना समय लगेगा । आपको ६ बर्ष की उम्र से शुरू करना होगा, पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना होगा और योग्य गुरु की आवश्यकता होगी । क्योंकि आप वेद सीधे सीधे नहीं समझ सकते क्योंकि वो coded language मैं होते हैं जैसे गणित के सूत्र जब तक कोई आपको समझाएगा नहीं वो समझ मैं ही नहीं आयेंगे ।
क्योंकि वेदों की भाषा गूढ़ है इसलिए उनकी व्याख्या करने के लिए उपनिषद लिखे गए जिनकी संख्या लगभग २५० है । और एक आम आदमी उपनिषद भी नहीं समझ सकता तो उनकी व्याख्या पुराणों  मैं गई है । पुराणों मैं उदाहरण  सहित व्याख्या है जिसको आप समझ सकते हैं लेकिन पुराण भी १८ हैं और उनमें कई कई हजार श्लोक होते हैं। भागवत पुराण  मैं ही ५०,००० श्लोक हैं । आज हमारे पास कहाँ इतना समय है की इतना सब पढ़ें वो भी आज मोबाइल, कंप्यूटर और टीवी  के ज़माने मैं हमें तो कोई बता दे तो हम मान लेते हैं अपना ज्ञान whats app और Facebook पर फॉरवर्ड करते हैं फॉरवर्ड करने से पहले उसे पढ़ते भी नहीं है और न ही उसकी जांच करते हैं की ये घटना सत्य या असत्य । तो क्या करें ? एक उपाय है भगवत गीता पढ़ें उसमें मात्र ७०० श्लोक हैं यदि १ श्लोक प्रतिदिन के हिसाब से पढ़ें तो लगभग २ बर्ष मैं पूरा पढ़ सकते हैं ।

सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपलनंदन: ।
पार्थो वत्स: सुधिर्भोक्ता:दुग्ध गीतामृतं महत ।।

अर्थात यह भगवत गीता सभी उपनिषदों का सार है, जो गाय के तुल्य है, और ग्वालबाल के रूप मैं विख्यात भगवान् कृष्ण इस गाय को दुह रहे हैं । अर्जुन बछड़े के सामान हैं, और सारे विद्वान् तथा शुद्ध भक्त भगवतगीता के अमृतमय दूध का पान करने वाले हैं

एकं शाश्त्रमदेवकीपुत्रगीतम्
एको देवो देवकीपुत्रएव ।
एको मंत्रस्तस्य नमानी यानि 
कर्माप्येकंतस्य देवस्य सेवा ।।
आज के युग मैं लोग एक शास्त्र, एक ईश्वर, एक धर्म, तथा वृत्ति के लिए अत्यंत उत्सुक हैं अत: एकं शाश्त्रमदेवकीपुत्रगीतम् एक ही शास्त्र भगवत गीता हो जो सारे विश्व के लिए हो । एको देवो देवकीपुत्रएव सारे संसार के लिए एक भगवान् हो श्री कृष्ण, एको मंत्रस्तस्य नमानी यानि,एक ही प्रार्थना हो - उनके नाम का कीर्तन - हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।  हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे  ।। कर्माप्येकंतस्य देवस्य सेवा-और केवल एक ही कार्य हो - भगवान् के सेवा  ।

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्येशास्त्रविस्तरे: ।
यास्वयम पद्मनाभस्य मुख पद्माविदीन: सृता ।।
क्योंकि भगवद्गीता भगवान् के मुख से निकली है, अतएव किसी को अन्य वैदिक साहित्य पढ़ने ही आवश्यकता नहीं हैं । वर्तमान युग मैं लोग इतने व्यस्त हैं ही अन्य वैदिक साहित्य पढ़ने का समय ही नहीं है इसलिए भगवत गीता पढ़ने मात्र से सारी आवश्यकता पूरी हो जाती हैं ।

गीता-गंगोदकम पीत्वा पुनर्जन्म नि विद्यते ।
जो गंगाजल पीता है उसे मुक्ति मिलती है अत: उसे क्या कहा जाए जो भगवत गीता का अमृत पान करता है? भगवत गीता महाभारत का अमृत है इसे भगवान् कृष्ण ने स्वयं सुनाया है । गंगा भगवान् के चरणों से निकली है और गीता श्री भगवान् के श्रीमुख से निकली है । निस्संदेह भगवान् के मुख और चरणों मैं कोई अंतर नहीं होता लेकिन निष्पक्ष अध्ययन हम पाएंगे की भगवद्गीता गंगाजल से अधिक महत्वपूर्ण है ।

कुछ लोग रामायण तो पढ़ते हैं लेकिन गीता नहीं पढ़ते, क्योंकि उनका सोचना है की गीता पढ़ने से वैराग्य की उत्पत्ति होती है और वो घर संसार त्याग देगा इसलिए कुछ माता पिता अपने बच्चों को गीता पढ़ने के लिए प्रोत्साहित नहीं करते तो इसका सीधा सा उत्तर है की गीता सुनने के बाद अर्जुन ने कहाँ सन्यास लिया उसने युद्ध किया और राजपाट का भोग भी किया । जब दोनों ओर सेनायें युद्ध के लिए तैयार खड़ी थीं तब भगवान् ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया इस से अधिक क्या emergency हो सकती थी ? अत: आप इस समय emergency मैं हैं और भगवत गीता को आज और अभी से पढ़ना शुरू करें इस से अच्छा मौका कभी नहीं आएगा । मुझे पूर्ण विश्वास है आप भी कोरोना रुपी युद्ध मैं विजयी होंगे और अर्जुन की भांति राजपाट भोगेंगे।

आज कई top class motivator भगवत गीता को आधार बनाकर बड़ी बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी के कर्मचारियों को motivate करते है और लाखों नहीं करोड़ों कमाते हैं जैसे विवेक बिंद्रा, गौर गोपाल दास इत्यादी । महात्मागांधी ने भी  कई बार भगवत गीता पढ़ी थी और उसके ऊपर अपनी ओर से टीका भी लिखी थी । तो आइये शुरू करें । यदि आपके पास गीता नहीं है तो मुझे मेसेज करें मैं आपको PDF फॉर्मेट मैं भेज दूंगा ।

 
हरे कृष्ण
अवधेश पराशर
मोबाइल- 9359502179

 

Sunday, 19 April 2020

हिन्दू धर्म मैं confusion

प्राचीनकाल में देव, नाग, किन्नर, असुर, गंधर्व, भल्ल, वराह, दानव, राक्षस, यक्ष, किरात, वानर, कूर्म, कमठ, कोल, यातुधान, पिशाच, बेताल, चारण आदि जातियां हुआ करती थीं। देव और असुरों के झगड़े के चलते धरती के अधिकतर मानव समूह दो भागों में बंट गए। पहले बृहस्पति और शुक्राचार्य की लड़ाई चली, फिर गुरु वशिष्ठ और विश्‍वामित्र की लड़ाई चली। इन लड़ाइयों के चलते समाज दो भागों में बंटता गया।
 
हजारों वर्षों तक इनके झगड़े के चलते ही पहले सुर और असुर नाम की दो धाराओं का धर्म प्रकट हुआ, यही आगे चलकर यही वैष्णव और शैव में बदल गए। लेकिन इस बीच वे लोग भी थे, जो वेदों के एकेश्वरवाद को मानते थे और जो ब्रह्मा और उनके पुत्रों की ओर से थे। इसके अलावा अनीश्वरवादी भी थे। कालांतर में वैदिक और चर्वाकवादियों की धारा भी भिन्न-भिन्न नाम और रूप धारण करती रही।
शैव और वैष्णव दोनों संप्रदायों के झगड़े के चलते शाक्त धर्म की उत्पत्ति हुई जिसने दोनों ही संप्रदायों में समन्वय का काम किया। इसके पहले अत्रि पुत्र दत्तात्रेय ने तीनों धर्मों (ब्रह्मा, विष्णु और शिव के धर्म) के समन्वय का कार्य भी किया। बाद में पुराणों और स्मृतियों के आधार पर जीवन-यापन करने वाले लोगों का संप्रदाय ‍बना जिसे स्मार्त संप्रदाय कहते हैं।

इस तरह वेद और पुराणों से उत्पन्न ५  तरह के संप्रदाय माने जा सकते हैं:- 1. वैष्णव, 2. शैव, 3. शाक्त, 4 स्मार्त और 5. वैदिक संप्रदाय। वैष्णव जो विष्णु को ही परमेश्वर मानते हैं, शैव जो शिव को परमेश्वर ही मानते हैं, शाक्त जो देवी को ही परमशक्ति मानते हैं और स्मार्त जो परमेश्वर के विभिन्न रूपों को एक ही समान मानते हैं। अंत में वे लोग जो ब्रह्म को निराकार रूप जानकर उसे ही सर्वोपरि मानते हैं। हालांकि आजकल सब कुछ होचपोच।
आज हम संक्षिप्त रूप से विभिन्न सम्प्रदायों की चर्चा करेंगे -

१. वैष्णव - जो भक्त हैं और भगवान् विष्णु या कृष्ण की भक्ति करते हैं और उनको ही एकमात्र ईश्वर के रूप मैं स्वीकार करते हैं वैष्णव कहलाते हैं वैष्णव के मुख्य रूप से ५ सप्रदाय हैं 
  1. ब्रह्म संप्रदाय - जिसके आद्य प्रवर्तक चतुर्मुखी ब्रह्माजी हैं और प्रमुख आचार्य मध्वाचार्य हुए इसे वर्तमान मैं मध्व संप्रदाय के नाम से जाना जाता हैं ।
  2. श्री संप्रदाय - जिसकी आद्य प्रवर्तिका विष्णुपत्नी महालक्ष्मी और प्रमुख आचार्य रामानुजाचार्य हुए।
  3. रूद्र संप्रदाय - जिसके आद्य प्रवर्तक देवादिदेव् महादेव और प्रमुख आचार्य बल्लभाचार्य हुए वर्तमान मैं वल्लभ संप्रदाय के नाम से जाना जाता हैं।
  4. कुमार संप्रदाय - जिसके आद्य प्रवर्तक सनत्कुमार गन और प्रमुख आचार्य निम्बार्काचार्य हुए जिसे वर्तमान मैं निम्बार्क संप्रदाय कहा जाता हैं।
इसका अलावा उत्तर भारत मैं ब्रह्म(मध्व) संप्रदाय के अंतर्गत ब्रह्म मध्व गोड़िय संप्रदाय जिसके प्रवर्तक श्री चैतन्य महाप्रभु और श्री रामानुज संप्रदाय और रामंदाचार्य जी ने सर्व धर्म समभाव की भावना को बल देते हुए कबीर, रहीम सभी वर्गों जाति के व्यक्तियों को उपदेश दिया ।

विष्णु के अवतार : शास्त्रों में विष्णु के 24 अवतार बताए हैं, लेकिन प्रमुख 10 अवतार माने जाते हैं- मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बु‍द्ध और कल्कि।

24 अवतारों का क्रम निम्न है-1. आदि परषु, 2. चार सनतकुमार, 3. वराह, 4. नारद, 5. नर-नारायण, 6. कपिल, 7. दत्तात्रेय, 8. याज्ञ, 9. ऋषभ, 10. पृथु, 11. मत्स्य, 12. कच्छप, 13. धन्वंतरि, 14. मोहिनी, 15. नृसिंह, 16. हयग्रीव, 17. वामन, 18. परशुराम, 19. व्यास, 20. राम, 21. बलराम, 22. कृष्ण, 23. बुद्ध और 24. कल्कि।

वैष्णव ग्रंथ : ऋग्वेद में वैष्णव विचारधारा का उल्लेख मिलता है। ईश्वर संहिता, पाद्मतन्त, विष्णु संहिता, शतपथ ब्राह्मण, ऐतरेय ब्राह्मण, महाभारत, रामायण, भागवत पुराण, विष्णु पुराण आदि।

वैष्णव पर्व और व्रत : एकादशी, चातुर्मास, कार्तिक मास, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, होली, दीपावली आदि।

वैष्णव तीर्थ : बद्रीधाम (badrinath), मथुरा (mathura), अयोध्या (ayodhya), तिरुपति बालाजी, श्रीनाथ, द्वारकाधीश।

वैष्णव संस्कार : 1. वैष्णव मंदिर में विष्णु, राम और कृष्ण की मूर्तियां होती हैं। एकेश्‍वरवाद के प्रति कट्टर नहीं है। 2. इसके संन्यासी सिर मुंडाकर चोटी रखते हैं। 3. इसके अनुयायी दशाकर्म के दौरान सिर मुंडाते वक्त चोटी रखते हैं। 4. ये सभी अनुष्ठान दिन में करते हैं। 5. ये सात्विक मंत्रों को महत्व देते हैं। 6. जनेऊ धारण कर पितांबरी वस्त्र पहनते हैं और हाथ में कमंडल तथा दंडी रखते हैं। 7. वैष्णव सूर्य पर आधारित व्रत उपवास करते हैं। 8. वैष्णव दाह-संस्कार की रीति है। 9. यह चंदन का तिलक खड़ा लगाते हैं। 

वैष्णव साधु-संत : वैष्णव साधुओं को आचार्य, संत, स्वामी आदि कहा जाता है।




२. शैव - भगवान शिव तथा इन के अवतारों को मानने वालों को शैव कहते हैं । शैव मैं शाक्त, नाथ, दसनामी, नाग, आदि उप संप्रदाय हैं । महाभारत मैं शैव के चार संप्रदाय बतलाये गए हैं १) शैव २) पाशुपत ३) कालदमन ४) कापालिक शैव मत का मूलरूप ऋग्वेद मैं रूद्र की आराधना मैं है । रुद्रों मै प्रमुख रूद्र ही आगे चलकर शिव, शंकर, भोलेनाथ और महादेव कहलाये । 

शिव के अवतार : शिव पुराण में शिव के भी दशावतारों के अलावा अन्य का वर्णन मिलता है, जो निम्नलिखित है- 1. महाकाल, 2. तारा, 3. भुवनेश, 4. षोडश, 5.भैरव, 6.छिन्नमस्तक गिरिजा, 7.धूम्रवान, 8.बगलामुखी, 9.मातंग और 10. कमल नामक अवतार हैं। ये दसों अवतार तंत्रशास्त्र से संबंधित हैं।

शिव के अन्य 11 अवतार : 1. कपाली, 2. पिंगल, 3. भीम, 4. विरुपाक्ष, 4. विलोहित, 6. शास्ता, 7. अजपाद, 8. आपिर्बुध्य, 9. शम्भू, 10. चण्ड तथा 11. भव का उल्लेख मिलता है।

इन अवतारों के अलावा शिव के दुर्वासा, हनुमान, महेश, वृषभ, पिप्पलाद, वैश्यानाथ, द्विजेश्वर, हंसरूप, अवधूतेश्वर, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, ब्रह्मचारी, सुनटनतर्क, द्विज, अश्वत्थामा, किरात और नतेश्वर आदि अवतारों का उल्लेख भी 'शिव पुराण' में हुआ है जिन्हें अंशावतार माना जाता है।

शैव ग्रंथ : वेद का श्‍वेताश्वतरा उपनिषद (Svetashvatara Upanishad), शिव पुराण (Shiva Purana), आगम ग्रंथ (The Agamas) और तिरुमुराई (Tiru-murai- poems)

शैव व्रत और त्योहार : चतुर्दशी, श्रावण मास, शिवरा‍त्रि, रुद्र जयं‍‍ती, भैरव जयंती आदि।

शैव तीर्थ : 12 ज्योतिर्लिंगों में खास काशी (kashi), बनारस (Benaras), केदारनाथ (Kedarnath), सोमनाथ (Somnath), रामेश्वरम (Rameshvaram), चिदम्बरम (Chidambaram), अमरनाथ (Amarnath) और कैलाश मानसरोवर (kailash mansarovar)

शैव संस्कार : 1. शैव संप्रदाय के लोग एकेश्वरवादी होते हैं। 2. इसके संन्यासी जटा रखते हैं। 3. इसमें सिर तो मुंडाते हैं, लेकिन चोटी नहीं रखते। 4. इनके अनुष्ठान रात्रि में होते हैं। 5. इनके अपने तांत्रिक मंत्र होते हैं। 6. ये निर्वस्त्र भी रहते हैं, भगवा वस्त्र भी पहनते हैं और हाथ में कमंडल, चिमटा रखकर धूनी भी रमाते हैं। 7. शैव चन्द्र पर आधारित व्रत-उपवास करते हैं। 8. शैव संप्रदाय में समाधि देने की परंपरा है। 9. शैव मंदिर को शिवालय कहते हैं, जहां सिर्फ शिवलिंग होता है। 10. ये भभूति तिलक आड़ा लगाते हैं।

शैव साधु-संत : शैव साधुओं को नाथ, अघोरी, अवधूत, बाबा, ओघड़, योगी, सिद्ध आदि कहा जाता है।


३- शाक्त - जो शक्ति की पूजा करते हैं जैसे दुर्गा, भवानी, उमा इत्यादि । इस संप्रदाय मैं को देवी प्रमुख (पुरुष नहीं स्त्री )   माना जाता है जो सभी देवी के विभिन्न स्वरुप हैं शक्ति मत के अनुसार कई परम्पराएं भी मिलती हैं जिसमें लक्ष्मी से लेकर भयावह काली तक हैं । कुछ शक्त संप्रदाय अपनी देवी का सम्बन्ध शिव या विष्णु से बताते हैं
बिशेष - भगवान् की दो शक्तियां होती हैं १) परा शक्ति वो दुर्गा है २) अपरा शक्ति वो श्रीमती राधारानी हैं
सिन्धु घाटी की सभ्यता में भी मातृदेवी की पूजा के प्रमाण मिलते हैं। शाक्त संप्रदाय प्राचीन संप्रदाय है। गुप्तकाल में यह उत्तर-पूर्वी भारत, कम्बोडिया, जावा, बोर्निया और मलाया प्राय:द्वीपों के देशों में लोकप्रिय था। बौद्ध धर्म के प्रचलन के बाद इसका प्रभाव कम हुआ।
 

मां पार्वती : मां पार्वती का मूल नाम सती है। ये 'सती' शब्द बिगड़कर शक्ति हो गया। पुराणों के अनुसार सती के पिता का नाम दक्ष प्रजा‍पति और माता का नाम मेनका है। पति का नाम शिव और पुत्र कार्तिकेय तथा गणेश हैं। यज्ञ में स्वाहा होने के बाद सती ने ही पार्वती के रूप में हिमालय के यहां जन्म लिया था।

इन्हें हिमालय की पुत्री अर्थात उमा हैमवती भी कहा जाता है। दुर्गा ने महिषासुर, शुम्भ, निशुम्भ आदि राक्षसों का वध करके जनता को कुतंत्र से मुक्त कराया था। उनकी यह पवित्र गाथा मार्केण्डेय पुराण में मिलती है। उन्होंने विष्णु के साथ मिलकर मधु और कैटभ का भी ‍वध किया था।
 

भैरव, गणेश और हनुमान : अकसर जिक्र होता है कि मां दुर्गा के साथ भगवान भैरव, गणेश और हनुमानजी हमेशा रहते हैं। प्राचीन दुर्गा मंदिरों में आपको भैरव और हनुमानजी की मूर्तियां अवश्य मिलेंगी। दरअसल, भगवान भैरव दुर्गा की सेना के सेनापति माने जाते हैं और उनके साथ हनुमानजी का होना इस बात का प्रमाण है कि राम के काल में ही पार्वती के शिव थे।
 

प्रमुख पर्व नवदुर्गा : मार्कण्डेय पुराण में परम गोपनीय साधन, कल्याणकारी देवी कवच एवं परम पवित्र उपाय संपूर्ण प्राणियों की रक्षार्थ बताया गया है। जो देवी की 9 मूर्तियांस्वरूप हैं जिन्हें 'नवदुर्गा' कहा जाता है, उनकी आराधना आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से महानवमी तक की जाती है।

धर्म ग्रंथ : शाक्त संप्रदाय में देवी दुर्गा के संबंध में 'श्रीदुर्गा भागवत पुराण' एक प्रमुख ग्रंथ है जिसमें 108 देवी पीठों का वर्णन किया गया है। उनमें से भी 51-52 शक्तिपीठों का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसी में दुर्गा सप्तशती भी है। 


शाक्त धर्म का उद्देश्य : सभी का उद्देश्य मोक्ष है फिर भी शक्ति का संचय करो। शक्ति की उपासना करो। शक्ति ही जीवन है, शक्ति ही धर्म है, शक्ति ही सत्य है, शक्ति ही सर्वत्र व्याप्त है और शक्ति की हम सभी को आवश्यकता है। बलवान बनो, वीर बनो, निर्भय बनो, स्वतंत्र बनो और शक्तिशाली बनो। तभी तो नाथ और शाक्त संप्रदाय के साधक शक्तिमान बनने के लिए तरह-तरह के योग और साधना करते रहते हैं। सिद्धियां प्राप्त करते रहते हैं।

४- नाथ - इस सम्प्रदाय मैं बौद्ध, शैव या योग की परम्पराओं का समन्वय दिखाई देता है । यह हठयोग की साधनापद्धति पर आधारित हैं । शिव इस संप्रदाय केप्रथम गुरु एवं अराध्य हैं । इसके अलावा इसमें मच्छिंद्रनाथ, गुरु गोरखनाथ, सर्वाधिक प्रसिद्द हैं । गुरु गोरखनाथ ने बिखरी हुई योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया अत: इसके संस्थापक गोरखनाथ माने जाते हैं नाथ संप्रदाय को सन्यासी, योगी, जोगी, नाथ अवधूत कहा जाता है

५- दशनामी संप्रदाय - दशनामी शब्द सन्यासियों, सरस्वती, गिरी, पूरी, वन, भारती, तीर्थ, सागर, अरण्य, पर्वत, और १०वां आश्रम है के एक संगठन विशेष गोस्वामियों के लिए प्रयुक्त होता है इसे सर्वप्रथम शंकराचार्य ने चलाया था । शंकराचार्य ने अपने मत के प्रचार के लिए भारत भ्रमण करते समय चार मठों की स्थापना की थी । जिसमें श्रंगेरी दक्षिण मैं, उत्तर मैं जोशीमठ, पूर्व मैं गोवर्धन मठ, तथा पश्चिम मैं शारदा मठ हैं

६ स्मार्त - जो पांच देवताओं की पूजा करते हैं और थोडा थोडा सभी सम्प्रदायों का समावेश होता है लेकिन एकनिष्ठता का अभाव होता है स्मार्ट कहलाते हैं आज भारतवर्ष मैं अधिकतर स्मार्त ही पाए जाते हैं
धर्मग्रंथ : सभी पुराण, स्मृतियां।

प्रमुख देवता : शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य एवं गणेश।

स्मृति ग्रंथों में मनु स्मृति सहित सभी स्मृतियां और पुराण आते हैं। वेदों को छोड़कर जो इन ग्रंथों पर आधारित जीवन-यापन करते हैं उनको स्मार्त संप्रदाय का माना जाता है। जैसे जो विष्णु को भी माने और शिव को भी, दुर्गा को भी और अन्य देवी-देवताओं का भी पूजन करें, वे सभी स्मार्त संप्रदाय के हैं। अधिकतर हिन्दू स्मार्त संप्रदाय के ही हैं जिसमें एकनिष्ठता का अभाव है।


७ - महानुभाव - इसके प्रवर्तक १२६७ मैं श्री चक्रधर स्वामी ने किया था वे परब्रह्म परमात्मा के अवतार हैं यह शास्वत सत्य कई प्रमाणों से सिद्ध हो चूका है । भगवान् श्री चक्रधर स्वामी ने ये प्रमाणित किया कीपरब्रह्म का अवतार द्वापर युग मैं श्री कृष्ण हैं भगवान् ने गीता मैं कहा है की - 
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः।
त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥ (4-9) 
इसी कथनानुसार भगवान के अवतार हर किसी को ज्ञात नही होते, वह स्वयं भगवान अवतार धारण करके अज्ञानी मनुष्यो को जब ज्ञान देते हैं, तब उन्हें परमात्मा का साक्षात्कार होता है, वैसे ही कलियुग में परमेश्वर भगवान श्री चक्रधर स्वामी जी ने अवतार धारण करके अपना परिचय दिया और यह बताया कि, भगवान श्रीकृष्ण जिन्हें सारी दुनिया विष्णुजी का अवतार समझती है, वह वास्तव में विष्णुजी का अवतार न होकर परब्रह्म परमेश्वर का अवतार है, तथा ब्रम्हा-विष्णु-महेश तथा सारे देवी देवता सृष्टि के चक्र को चलाने के लिये कार्यरत है, तथा वो देवता है, परमेश्वर नहीं, भगवान श्रीकृष्ण ने भी गीता में अपने परमधाम का सात बार उल्लेख किया किन्तु एक बार भी उन्होंने वैकुंठ या क्षिराब्दि का उल्लेख नही किया...
जब आप महानुभाव सम्प्रदाय के तत्वज्ञान को पढ़ेंगे तो ऐसे अनगिनत रहस्य आपको पता चलेंगे जिससे यह सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण पूर्ण परब्रह्म परमेश्वर का अवतार हैं, विष्णुजी नहीं, इसीलिए जिनको भी भगवान श्रीकृष्ण या परमात्मा तथा मोक्ष में आसक्ति है, उन्हें महानुभाव पंथ की शरण जाने की सलाह दी जाती है,
भगवान श्रीकृष्ण ने दसवें के दसवें श्लोक में कहा भी है कि
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ⁠।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ⁠।⁠।⁠10-10।⁠।
उन निरन्तर मेरे ध्यान आदिमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजनेवाले भक्तोंको मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं....
इस श्लोक में विशेष यह है कि भजन-ध्यान तो सभी जन करते है, किन्तु निरंतर निरंतर होना चाहिए, (सततयुक्तानाम्)
भगवान को भजते तो सभी है किंतु वह भजना प्रीतिपूर्वक होना चाहिए, क्योंकि प्रेम के तीन स्तर होते है, प्रथम स्तर प्रेम है, दूसरा स्तर स्नेह और तीसरा स्तर है प्रीति, अर्थात अगर आप भगवान के प्रति प्रेम की पूर्ण निष्ठा को प्राप्त हो गए है, मतलब आप भगवान को प्रीतिपूर्वक भज रहे है, (प्रीतिपूर्वकम्)
महानुभाव पंथ तथा जय कृष्णी पंथ स्थापना

महानुभाव पंथ (जय क्रिष्णी पंथ) की स्थापना
भगवान श्री चक्रधर स्वामी ने इ. स. १२६७ की, समाज के विशेष कर पिछ्डे वर्ग को जीवन का अंतिम सत्य एवं मोक्षं प्राप्ती के राह दिखाये, भगवान श्री चक्रधर स्वामीजी का अवतार धारण करना समाज के लिये बहोत ही उपयुक्त रहा, उन्होने अपने अनुयायीओको सत्य, अहिंसा, प्रेमदान एवं क्षमादान की मार्ग पर चलने के मार्ग दिखाये, प्रभू ने पंच अवतार की संकल्पना बहुत ही सुचारू ढंग से समाज को बतलाकर जीवन सफल किया...
वह मराठी भाषा के जन्मदाता हैं, मराठी भाषा की पहली कवयित्री महदंबा उनकी शिष्या थीं, मराठी के आद्यग्रंथ लीलाचरित्र में श्री चक्रधर स्वामी की जीवनी समाविष्ट है...

भगवान श्री चक्रधर स्वामीजी ने अपने भक्तोको कहा, "प्रभू चारो युगो मे अवतार धारण करते है"
जिस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र मे अर्जुन से कहा था,
"धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे"
ठीक उसी प्रकार ऐसा कोई युग नही, जहा भगवान का वास न हो...


मेरे विचार से आप लोगों का काफी हद तक confusion दूर हो गया होगा और आप समझ चुके होंगे की आप कहाँ और किस स्तर पर स्थित हैं अगले लेख मैं हम विश्व की सर्वश्रेष्ठ परंपरा वैष्णव परंपरा का उल्लेख करेंगे क्योंकि वैष्णव होना ही आप सभी के हित मैं है और ये ही सुगम उपाय है जो सीधे वेदों अनुगमन करता है.