Wednesday, 27 May 2020

पंडित और ब्राह्मण मैं क्या अंतर हैं ?

ब्राह्मण क्या है ?

What is Brahman ?

ब्राह्मण शब्द की उतपत्ति ब्रह्म से हुई है जिसका अर्थ होता कि जो व्यक्ति ब्रह्म (ईश्वर) को छोड़ के किसी और को नहीं पूजता उसे ब्राह्मण नाम दिया गया है. कई लोग कथा सुनाने वाले को ब्राह्मण कहते हैं जबकि वो ब्राह्मण नहीं कथावाचक होता है. कुछ लोग पुरोहिताई करने वाले को ब्राह्मण कहते हैं वो ब्राह्मण नहीं याचक या पुरोहित होता है. कुछ लोग पंडित को ब्राह्मण समझते हैं जबकि वेदों का अच्छा ज्ञान रखने वाला पंडित होता है उसे हम ब्राह्मण नहीं कह सकते। जो ज्योतिषी या नक्षत्र विद्या को अपनी जीविका बना के चलते हैं कुछ लोग उन्हें भी ब्राह्मण समझ लेते हैं जबकि वो ज्योतिषी होते हैं. ब्राह्मण का अर्थ सीधा सा यह है की जो व्यक्ति ब्रह्म शब्द का उच्चारण करता है उसे ही हम सही मायने में ब्राह्मण मानते हैं.
अब जो पुरोहित होता है अर्थात जो कर्मकांड करवाता है वो पैसे लेकर करवाता है लेकिन वो ब्राह्मण नहीं है इसी प्रकार जो हस्त रेखा देखता है पैसे लेता है या कुंडली देखता है वो ज्योतिषी है लेकिन ब्राह्मण नहीं है

पंडित क्या है

What is Pandit?

जब कोई व्यक्ति किसी विशेष ज्ञान को प्राप्त कर उसमे पारंगत होता है तो उसे पांडित्य नाम से सम्भोधित किया जाता है. इसका पूर्णतः अर्थ होता है कि किसी विशेष ज्ञान में पूरी तरह से कुशल होना। इसमें एक शब्द का प्रयोग हुआ है पंडः जिसका अर्थ होता है विद्वता जिससे समझ आता है कि पंडित को विद्वान भी कहा जा सकता है. कुछ लोग इन्हे निपुण शब्द से भी पुकारते हैं.
किसी भी विशेष विद्या का ज्ञान रखने वाले को पंडित कहा जाता है. जैसे कंप्यूटर का जानकार को हम कंप्यूटर का पंडित भी कह सकते हैं उसी प्रकार किसी यन्त्र मैं जानकारी रखने वाले इंजिनियर को भी हम यन्त्र का पंडित कह सकते हैं.

पंडित और ब्राह्मण में क्या अंतर है ?

What is the main difference between Pandit & Brahmin

# जो व्यक्ति किसी विषय में ज्ञानी होता है अधिकतर शास्त्रों में उसे हम पंडित कहते हैं जबकि जो व्यक्ति ब्रह्म शब्द का उच्चारण कर ईश्वर की आराधना करता है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं.
# जो लोग वेदों का अच्छा ज्ञान रखते हुए अपनी जीविका चलाते हैं उन्हें हम पंडित कहते हैं जबकि जो लोग ईश्वर में निस्वार्थ तरीके से अपना मन लगाते हैं उन्हें ब्राह्मण कहते हैं.
# पंडित शब्द की उत्पत्ति पंड से हुई है जिसका अर्थ विद्वता होता है अर्थात एक विद्वान पंडित होता है जबकि ब्राह्मण केवल एक आराध्य होता है ईश्वर का.

उम्मीद है दोस्तों कि आपको हमारे द्वारा दी गयी जानकारी पसंद आयी होगी और आपके काफी काम भी आयी होगी. यदि फिर भी कोई गलती आपको दिखे या आपके मन में कोई अन्य सवाल या सुझाव हो तो वो भी आप हमसे पूछ सकते हैं. हम पूरी कोशिश करेंगे उस सवाल का जबाब आपको देने और आपके सुझाव को समझने और उसे पूरा करने की. धन्यवाद !!!


Tuesday, 26 May 2020

प्रणाम कैसे करें ?

गलत प्रणाम = कुष्ठ
▶️ गलत प्रणाम से कुष्ठ रोग होता है !!!
१.मंदिर में ठाकुर को अपने बाये रखकर प्रणाम करना चाहिए
२. हमेशा पंचांग प्रणाम करना चाहिए
३. पूरा लेट कर प्रणाम करना हो तो कमर से ऊपर के वस्त्र पूरे उतार देने चाहिए
४. महिला क्योंकि ऊपर के वस्त्र नहीं उतार सकती
इसलिए महिला द्वारा लेटकर प्रणाम नहीं करना चाहिए
५. पुरे वस्त्र पहन कर जो पूरा लेटकर प्रणाम करता है
▶️ उसे सात जन्म तक कुष्ठ रोगी होना पड़ता है

वराह पूराण में ऐसा लिखा है-
वस्त्र आवृत देहस्तु यो नरः प्रनमेत मम
श्वित्री सा जयते मूर्ख सप्त जन्मनी भामिनी
६. गुरुदेव को सामने से
७. नदी को एवं सवारी को उधर से प्रणाम करना चाहिए,
जिधर से वह आ रही हो
८. मंदिर के पीछे
९. भोजन करते समय
१०. शयन के समय
ठाकुर, गुरु, संत, वरिष्ठ या किसी को भी प्रणाम नहीं करना चाहिए|
▶️ श्री हरिभक्ति विलास ग्रन्थ से संकलित


नोट :- किसी संत के पैर  छूने की जिद नहीं करनी चाहिए दूर से पंचांग प्रणाम  करना है (घुटनों के बल बैठकर सर जमीन से लगाना है ) कदाचित वे छूने की आज्ञा दे दें तो छूकर तुरंत हाथ धोने चाहिए वही हाथ माला या प्रसाद को लगने से अपराध लगता है यदि संत की मनाही हो तो वो जहाँ से गुजरे, उस स्थान की चरण रज मस्तक पर लगाना प्रणाम से बेहतर है

Saturday, 16 May 2020

भक्ति रस का अमृत सागर -02 (शुभदा)

हरे कृष्ण,

शुभदा (सर्व मंगलकारी)
आज हम कृष्ण भक्ति के दूसरे लक्षण शुभदा के बारे मैं चर्चा करेंगे-
श्रील रूप गोस्वामी ने शुभदा की परिभाषा दी है उनका कथन है कि वास्तविक शुभ का अर्थ है विश्व भर के समस्त लोगों के लिए कल्याण कार्य । इस समय लोगों के समूह समाज, जाती या राष्ट्र के रूप मैं कल्याण कार्यों मैं लगे हुए हैं । यहाँ तक कि विश्व सहायता कार्य के लिये संयुक्त राष्ट्र द्वारा भी प्रयास हो रहा है। किन्तु सीमित राष्ट्रीय कार्यों के दोषों के कारण सारे विश्व के लिए ऐसे सामूहिक कल्याण कार्यक्रम व्यावहारिक रूप मैं संभव नहीं हैं । किन्तु कृष्ण भावनामृत आन्दोलन इतना उत्तम है कि यह सम्पूर्ण मनुष्य जाति को सर्वोच्च लाभ पंहुचा सकता हैं । पदम् पुराण मैं उल्लेख हुआ है "जो व्यक्ति पूर्ण भक्ति मैं तत्पर है वह सारे विश्व की सर्वश्रेष्ठ सेवा करता और हर व्यक्ति को तृप्त करता मन जाना चाहिए। मानव समझ के अतिरिक्त वह वृक्षों तथा पशुओं तक को प्रसन्न करता है, क्योंकि ऐसे आन्दोलन के प्रति वे आकृष्ट होते हैं " इसका जीता जागता उदहारण भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने प्रस्तुत किया । जब वे अपने संकीर्तन आन्दोलन का प्रचार करने के लिए मध्य भारत मैं झारखण्ड के जंगलों से होकर यात्रा कर रहे थे तब बाघ, हाथी, हिरन तथा अन्य जंगली जानवर उनके साथ हो लिए तथा अपनी अपनी विधि से नाच कर तथा हरे कृष्ण कीर्तन करके उसमें भाग ले रहे थे ।  
 यही नहीं भक्ति मैं रत मनुष्य भक्ति कार्य करते हुए उन सभी उत्तम गुणों को विकसित कर सकता है जो सामान्यतया देवताओं मैं पाए जाते हैं दूसरी और जो भक्त नहीं होता उसमें कोई उत्तम गुण नहीं पाए जाते भले ही शैक्षिक दृष्टी से उच्च शिक्षा प्राप्त हो, परन्तु अपने कार्य क्षेत्र मैं वह पशुओं से भी निकृष्ट देखा जा सकता हैं ।
उदाहरणार्थ कोई बालक, भले ही किसी विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त न किये हो, अवैध विषयी जीवन, जुआ, मांसाहार तथा मद्यपान का तुरंत परित्याग कर सकता है। परन्तु जो भक्त नहीं है वे अत्यधिक शिक्षित होने पर भी प्राय: शराबी, मांस भक्षक, कामुक, तथा जुआरी होते हैं । हमारा अनुभव है कि भक्त नवयुवक सिनेमा, रात्रि क्लब, नग्न नृत्य प्रदर्शन, रेस्तरां, मदिरालय आदि से अनासक्त रहता है ।
जो भक्त नहीं है वह प्राय: अधा घंटा भी शांतिपूर्वक नहीं बैठ सकता । योगपद्धति सिखाती कि यदि आप शांत रहे तो आपको अनुभूति होगी की मैं ईश्वर हूँ । यह पद्धति ही भौतिकतावाद , पुरुषों के लिए उपयुक्त हो लेकिन ध्यान के पश्चात् वे पुन: शराब, मांसाहार, जुआ इत्यादी की और उन्मुख हो सकते हैं। किन्तु एक भक्त किसी भी प्रकार के ध्यान का अभ्यास किये बिना ही स्वत: ऊपर उठ जाता है इसलिए वह व्यर्थ की बातों को त्याग कर उच्च चरित्र का निर्माण करता है । मनुष्य कृष्ण का शुद्ध भक्त बनकर ही सर्वोच्च चरित्र का विकास कर सकता है । और जब मनुष्य के जीवन मैं शुचिता और शुद्धता होगी तो उसके जीवन मैं कोई भी अशुभ घट ही नहीं सकता । और जब अशुभ नहीं नहीं है तो सब कुछ शुभ ही शुभ होगा ।

हरे कृष्ण
दंडवत
 

Sunday, 3 May 2020

भगवान् नरसिम्ह देव

 

असुर हमारे धोखाधडियों का प्रतिनिधित्व करते हैं

भगवान् के १०अवतारों मैं से एक नरसिम्हा भगवान् का चरित्र सबसे अद्भुत हैं । राक्षसों को दण्डित करने वाले भगवान् हमारे अन्दर के नकारात्मक विचारों को शुद्ध करने का उनका तरीका अनोखा हैं । क्या आप सोच सकते हैं की हमारे अन्दर भी एक दानव मौजूद है तो आखिरकार मैं एक दानव हूँ या राक्षस हूँ ? असल मैं हमारे अन्दर नकारात्मक प्रवृत्ति एक राक्षसी प्रवृत्ति है । एक जिम्मेदार व्यक्ति परिश्रम  द्वारा इसे पहिचान लेता है और दृढ संकल्प और भक्ति के द्वारा इसे मिटाने  की कोशिश करता हैं ।
भगवान् कृष्ण ने गीता मैं  कहा है - मैं धर्मी की रक्षा  करने और विधर्मी को दंड देने के लिए अवतरित होता हूँ । भक्तों की रक्षा  करना उनकी प्राथमिकता है । जबकि राक्षसों को दंड देना गौण । हांलाकि उनकी सजा भी सुरक्षा का एक रूप हैं । आख़िरकार भगवान सभी प्राणियों के पिता हैं । इसलिए प्यार से अपने संस्कारी बच्चों की रक्षा करता है और गुमराह बच्चों को सुधारते  है उसके सजा या हत्या उसके अकारण दया है जो राक्षसों का जीवन बदल देती है और उन्हें उच्च स्तर  की चेतना मैं बदल देती है ।
इस गृह पर उनके विभिन्न अवतारों मैं, भगवान् ने कई राक्षसों को मार डाला और उन्हें मुक्त कर दिया । ये राक्षस अक्सर अध्यात्मिक जीवन के चिकिस्तकों मैं विभिन्न आरतियों या अवांछित व्यक्तित्व लक्षणों का प्रतिनिधित्व करते हैं । भक्त भगवान् से प्रार्थना करते हैं की वे उन अवांछित गुणों को नष्ट कर दें जैसे उन्होंने राक्षसों को नष्ट कर दिया । जब कोई नकारात्मक प्रवृत्तियों से शुद्ध होता है, तो व्यक्ति आसानी से अध्यात्मिक प्रगति कर सकता है ।
वृन्दावन मैं, भगवान् कृष्ण ने पूतना, बकासुर, अघासुर जैसे कई राक्षसों को मारा । वैष्णव आचार्य बताते हैं पूतना एक छद्म गुरु का प्रतिनिधित्व करता है जो निर्दोष जनता को अर्थ संतुष्टि या दोनों की मुक्ति की दिशा मैं गलत समझाता है । पूतना चंचल मन का भी प्रतिनिधित्व करता है जो प्रतिकूल चीजों पर विश्वास करने के लिए एक अध्यात्मिक साधक को अनुकूल बनता है ।

हिरन्यकशिपू भौतिक इच्छाओं वाला व्यक्तित्व

भगवान् नरसिंह देव सर्वोच्च भगवान् के दिव्य अवतार थे । नरसिंह देव ने महान दैत्य हिरन्यकशिपू  का वध किया और उसके पुन्य पुत्र की रक्षा की । हिरण्याक्ष का अर्थ है सोना, और कसिपू का अर्थ है नरम बिस्तर । भौतिकतावादी लोग इन्द्रिय भोग के विचारों मैं डूबे रहते है और विपुल धन की आकांक्षा करते है, इसका उपयोग अत्यधिक शारीरिक सुख के लिये करते हैं । उनके मन और दिल भौतिक इच्छाओं से भरे हुए हैं । दूसरे शब्दों मैं कहें तो हिरण्यकासिपु उनके भीतर रहता है
जिसका मन स्वार्थी भौतिक इच्छाओं और अहंकारी प्रवृत्तियों से भर जाता है, वह अक्सर भगवान् के भक्तों को बहुत परेशान करता है जैसे हिरण्यकसिपू ने अपने ही छोटे पुत्र प्रल्हाद को पीड़ा दी । हिरण्यकासिपू  ने प्रल्हाद को विभिन्न तरीकों से बेरहमी से मरने की धमकी दी, जब तक की भगवान् नरसिंह देव दानव को मरने के लिए प्रकट नहीं हुए । इसी प्रकार भौतिक इच्छाएं अध्यात्मिक साधकों को विभिन्न प्रकार से शुद्ध भक्ति के मार्ग से विचलित करने की कोशिश करती हैं । इसलिए भौतिक इच्छाओं से मुक्त होने की आकांक्षा रखने वाले किसी भी भक्त को ईमानदारी से भगवान् नरसिंह देव की शरण लेनी चहिए, जिन्होंने हिरण्य कसिपू को मार डाला था, वैसे ही उन्हें दयापूर्वक नष्ट कर देता है । प्रल्हाद महाराज भगवान् नरसिंह देव प्रार्थना करते हैं ।
“ओम नमो भगवते नरसिम्हाय नमः तेजस-तेजसे अविर-अविर्भव वज्र-नख वज्र-कर्मस्त्रयन रंध्य रंध्य तमसा ग्रस ग्रस सर्व सः; अभयम् अभयम् आत्मानुभ्यस्तु सर्व क्षरम्। "
"मैं सभी शक्ति के स्रोत भगवान् नरसिंह देव के प्रति अपनी सम्मानजनक  श्रद्धा अर्पित करता हूँ। हे मेरे प्रभु, जो केवल वज्र के समाज नथून और दांत रखते हैं, कृपया इस भौतिक संसार मैं फलप्रद गतिविधि के लिए हमारे दानव जैसे इच्छाओं को प्राप्त करें । कृपया हमारे दिल मैं प्रकट हों और हमारे अज्ञानता को दूर करें ताकि आपकी दया से हम इस भौतिक दुनिया मैं अस्तित्व के लिए संघर्ष मैं निडर हो सकें" (भागवतम ५.१८.८)


एक शुद्ध भक्त जिसके दिल में कोई भौतिक स्वार्थी इच्छा नहीं है, वह स्वाभाविक रूप से सभी जीवित प्राणियों के कल्याण की कामना करता है। ऐसे भक्त भौतिक ईर्ष्या से पूरी तरह मुक्त हैं। इस भौतिक दुनिया में रहने वाली वातानुकूलित आत्माओं में ईर्ष्या एक प्रमुख आरती है। ईर्ष्या के कारण किसी की अनावश्यक प्रतिस्पर्धा, तुलना, शिकायत और दूसरों की आलोचना की प्रवृत्ति विकसित होती है। जो ईर्ष्या की बीमारी से मुक्त हो जाता है, वह एक सामाजिक व्यवहार में उदार हो जाता है और दूसरों के कल्याण के बारे में सोच सकता है। जो भक्ति-योग करता है, वह सभी ईर्ष्या के लोगों के मन को साफ करता है। इसलिए भक्त भगवान नृसिंहदेव से प्रार्थना करते हैं कि वे उनके दिलों में बस जाएं (bahir nrsimho hrdaye nrsimhah) और ईर्ष्या सहित सभी बुरी प्रवृत्ति को मार डालें। जब तक किसी को ईर्ष्या की बीमारी से मुक्त नहीं किया जाता है, तब तक कोई आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर सकता है
तो, प्रह्लाद महाराजा भगवान नरसिंह से बहुत प्रार्थना करते हैं कि ईश्वर भक्ति-योग के अभ्यास से लोगों को शुद्ध किया जाए।

स्वस्त्य अस्तु विस्वस्य खलह प्रसिदतम्
ध्यायन्तु भुतानि शिवम् मिथो धीः
मानस कै भादरम भजतद अदोकसजै
एवसयातम न मतीर आपि अहतुकी

“पूरे ब्रह्मांड में सौभाग्य हो सकता है, और सभी ईर्ष्यालु व्यक्तियों को शांत किया जा सकता है। भक्ति-योग का अभ्यास करने से सभी जीवित संस्थाएं शांत हो जाती हैं, भक्ति सेवा को स्वीकार करके वे एक-दूसरे के कल्याण के बारे में सोचेंगे। इसलिए आइए हम सभी भगवान श्रीकृष्ण के परम अवतरण की सेवा में संलग्न हों, और हमेशा उनके विचार में लीन रहें। " (भागवतम 5.18.9)


प्रह्लाद के शुभचिंतक स्वरूप की महिमा करते हुए, श्रील प्रभुपाद लिखते हैं, "प्रह्लाद महाराजा एक विशिष्ट वैष्णव हैं। वह खुद के लिए नहीं बल्कि सभी जीवित संस्थाओं के लिए प्रार्थना करता है - सौम्य, ईर्ष्यालु और शरारती। उन्होंने हमेशा अपने पिता हिरण्यकश्यप जैसे शरारती व्यक्तियों के कल्याण के बारे में सोचा। प्रह्लाद महाराजा ने अपने लिए कुछ नहीं माँगा; बल्कि, उसने भगवान से अपने आसुरी पिता के बहाने की प्रार्थना की। यह एक वैष्णव का दृष्टिकोण है, जो हमेशा पूरे ब्रह्मांड के कल्याण के बारे में सोचते हैं। ” (भागवतम 5.18.9 प्रयोजन)

इस प्रकार, भक्ति के एक सच्चे अभ्यासी को स्वयं को भौतिक इच्छाओं और ईर्ष्या के अखाड़ों के चंगुल में गिरने से बचाने के लिए परिश्रम करना होगा। कृष्ण के विशुद्ध भक्तों से भक्ति का विज्ञान सीखना चाहिए, जो शिक्षक या आचार्य हैं। यदि हम भगवान नृसिंह-देव की शरण लेने में ईमानदार हैं, तो वह हमें भौतिक इच्छाओं से दूर कर देंगे और हमें आध्यात्मिक गतिविधियों की ओर ले जाएंगे।

हरे कृष्ण
दंडवत
अवधेश पराशर

स्रोत - iskcon desiretree
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Friday, 1 May 2020

भक्ति रस का अमृत सागर -01

शुद्ध भक्ति के लक्षण 

श्री कपिलदेव ने श्रीमद्भागवतम मैं (३.२९.१२-१३) अपनी माता को उपदेश देते हुए शुद्ध भक्ति के निम्नलिखित बताये हैं : "हे माता! जो मेरे शुद्ध भक्त हैं और जिन्हें भौतिक लाभ या दार्शनिक चिंतन की कोई कामना नहीं है, उनके मन मेरी सेवा मैं इतने तल्लीन रहने के अतिरिक्त और कुछ नहीं मांगना चाहते यहाँ तक की की वे मेरे परम धाम मैं मेरे साथ रहने की भी याचना नहीं नहीं करते ।
मुक्ति ५ प्रकार की होती है - १. भगवान् से तदाकार होना (सायुज्य) २. भगवान् के साथ उसी लोक मैं रहना (सालोक्य) ३. भगवान् के सामान स्वरुप प्राप्त करना (सारुप्य) ४. भगवान् की ही तरह उन्ही ऐश्वर्यों का भोग करना (सार्ष्टि) तथा ५. भगवान के संगी रूप मैं रहना (सामीप्य) । भक्त पांच प्रकार की मुक्तियों मैं से किसी भी मुक्ति की कामना नहीं करता । वह भगवान् की प्रेममयी सेवा करके ही संतुष्ट रहता है ।

भक्ति के अन्य लक्षणों का वर्णन श्री रूप गोस्वामी ने विभिन्न शास्त्रों के साक्ष्य समेत किया है । उनके अनुसार शुद्ध भक्ति के छः लक्षण होते हैं जो निम्नवत हैं -
१. क्लेशघ्नी - शुद्ध भक्ति समस्त प्रकार के भौतिक क्लेश से अविलम्ब राहत प्रदान करती हैं ।
२. शुभदा - शुद्ध भक्ति समस्त कल्याण का शुभारम्भ करने वाली हैं ।
३. सान्द्रानन्द विशेषात्मा - शुद्ध भक्ति स्वत: दिव्य आनंद प्रदान करने वाली है ।
४. सुदुर्लभा - शुद्ध भक्ति विरले ही प्राप्त होती है ।
५. मोक्षलघुता  - शुद्ध भक्ति को प्राप्त लोग मुक्ति के विचार मात्र को तुच्छ समझते हैं ।
६. श्रीकृष्ण आकर्षिनी - शुद्ध भक्ति श्री कृष्ण को भी आकृष्ट करने का एकमात्र साधन है ।

१. क्लेशघ्नी -  भगवतगीता मैं भगवान् कहते हैं की मनुष्य को चाहिए की वह अन्य सारे कार्यों को त्याग कर उनकी शरण मैं जाए । सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणम व्रज ........ वहीँ भगवान यह भी वचन देते है कि वे शरणागत जीवों को सारे पापकर्मों के फल से बचायेंगे ।
मनुष्य के जीवन मैं जो क्लेश या कष्ट होते हैं वे विगत जीवन मैं किये गए पापकर्मों के कारण होते हैं । सामान्यतया मनुष्य अविद्या के कारण पापकर्म करता हैं किन्तु पापकर्मों से बचने का अज्ञान कोई बहाना नहीं हैं । पापकर्म दो प्रकार के होते हैं १. प्रौढ़ (प्रारब्ध) जो पाक चुके हैं अर्थात जो इस समय हम भोग रहे हैं २. अप्रौढ़ (अप्रराब्ध) वे पापकर्म जो हमारे भीतर संचित हैं लेकिन जिनके लिए हमने अभी कष्ट नहीं भोगा हैं ।
उदहारण के लिए - उसने कोई अपराध किया हो और वो अभी पकड़ा नहीं गया हो किन्तु ज्योहीं उसका पता चलेगा और वो पकड़ लिया जायेगा । इसी प्रकार हम अपने पूर्व पापकर्मों का फलित होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं । इस प्रकार ये एक श्रंखला बन जाती है और बद्ध जीव इन पापों के कारण  जन्म जन्मान्तर कष्ट उठाता है और अगले जीवन के और पापकर्म संचित करता रहता हैं । जब कोई जीर्ण रोग से ग्रस्त रहता है, किसी मुक़दमे मैं फंस जाता है, किसी निम्नकुल मैं जन्म लेता है या अशिक्षित रह गया है अथवा बदसूरत दिखता है तो उन्हें प्रारब्ध जानना चाहिए ।

इन पापकर्मों के फल तुरंत समाप्त हो सकते हैं यदि हम कृष्ण की शरण ग्रहण कर लें ।श्रीमद्भागवतम मैं उद्धव को दिए उपदेश मैं भगवान् कहते हैं " हे उद्धव ! मेरी भक्ति उस प्रज्वलित अग्नि के समान है जो इसमें डाले गए असीम ईंधन को जलाकर खाक कर देती है ।"

मनुष्य अपने पूर्व (विगत) कर्मों के कारण ब्राह्मण या चंडाल कुल मैं जन्म लेता है। यदि कोई व्यक्ति चंडाल कुल मैं जन्म लेता है तो इसका अर्थ है की उसके विगत कर्म पापपूर्ण थे । किन्तु यदि ऐसा व्यक्ति भक्ति के मार्ग को अपना लेता है और भगवान् के पवित्र नामों - हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।। का कीर्तन करता है तो वह तुरंत कर्म काण्ड करने का पात्र बन जाता है इसका अर्थ यह हुआ की उसके सारे पापकर्म तुरंत निष्प्रभावित हो जाते हैं ।
पद्मपुराण मैं कहा गया है की पापपूर्ण कर्मों के फल चार प्रकार के होते हैं -
१. वह प्रभाव जो अभी फलीभूत नहीं हुआ है (अप्रराब्ध)
२. बीज रूप मैं पड़ा रहने वाला प्रभाव (बीज )
३. वह प्रभाव जो पहले ही प्रौढ़ हो चूका है (प्रारब्ध)
४. जो प्राय: प्रौढ़ हैं (कूट )

प्रारब्ध उस प्रभाव का सूचक है जिसे हम अभी भोग रहे हैं । बीजरूप मैं पड़े प्रभाव ह्रदय के कोने मं रहते हैं जहाँ बीज सद्रश्य पापपूर्ण इच्छाओं का संग्रह होता है ।संस्कृत शब्द कूट का अर्थ है कि बीज का प्रभाव आने ही वाला है । अप्रराब्ध सूचित करता है की अभी बीज पड़ने की शुरूआत नहीं हुई है । पद्मपुराण के कथन से यह समझाना चाहिए की भौतिक कल्मष अत्यंत सूक्ष्म होता है । इसका शुभारम्भ, इसका फलीभूत होना तथा इसके परिणाम एवं मनुष्य की प्रकार कष्ट के रूप मैं भोगता है- ये सब एक लम्बी श्रंखला के अंग हैं । जब किसी को कोई रोग होता है तो रोग का कारन, उसका अदगं तथा उसके बढ़ जाने को निश्चत कर पाना प्राय: अत्यंत कठिन होता है । जिस तरह एक डॉक्टर सावधानी बरतने के लिए संदूषण को फ़ैलने से रोकने के लिए टीका लगाता  हैं, उसे तरह हमारे पापपूर्ण कर्मों के बीजों को फलीभूत होने से रोकने का व्यावहारिक टीका एकमात्र कृष्णभावनामृत मैं संलग्न होना है ।
जब तक मनुष्य भक्ति-मार्ग को ग्रहण नहीं करता तब तक वह पापकर्मों के फलों से शत प्रतिशत शुद्ध नहीं हो सकता ।
वैदिक कर्मकांड करने, दान मैं धन देने तथा तपस्या करने से मनुष्य को पापकर्मों के फलों से क्षणिक मुक्ति मिल सकती है किन्तु अगले ही क्षण वह पापकर्मों मैं प्रवृत्त हो सकता है उदहारण के लिए किसी बीमारी का डॉक्टर से इलाज करने पर वह ठीक हो सकता है लेकिन सावधानी न बरतने पर वह पुन: बीमार पड़ सकता है । वेदों मैं वर्णित कर्मकांड, दान, तपस्या मनुष्य को कुछ काल तक पाप करने से रोक सकते हैं लेकिन जब तक ह्रदय शुद्ध नहीं हो जाता वह पुन: उन्हीं पापकर्मों मैं प्रवृत्त होना पड़ेगा ।

साभार -श्री रूप गोस्वामी कृत -भक्तिरासमृत सिन्धु - हिंदी अनुवाद श्रील ए. सी. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद ।

हरे कृष्ण,
दंडवत,
अवधेश पाराशर ।

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