Tuesday, 31 March 2020

मृत्यु पर विजय पाने का उपाय


भगवान कृष्ण ने उद्धव से (श्रीमद् भागवतम के स्कन्द 11) भक्तिके उन सिद्धान्तों का वर्णन किया जिनको संपन्न करने से मनुष्य (मर्त्यप्राणी) दुर्जय मृत्यु पर विजय पा सकता है | इस मुक्तिप्रदायक ज्ञान के मुख्य अंश इस प्रकार है :
हेउद्धव! अनेक जन्मो के पश्चात् व्यक्ति को यह दुर्लभ मनुष्य शरीर प्राप्त होता है, जो अस्थायी होते हुए भी उसे जीवन की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करने का अवसर प्रदान करता है | इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि वह इस शरीर के द्वारा तब तक जीवन की सर्वोच्च पूर्णताप्राप्त करने का प्रयास करता रहे, जब तक यह शरीर मर कर गिर नहीं जाता | क्योंकि इन्द्रिय भोग तो निम्न योनी के प्राणियों को भी उपलब्ध होता है जबकि कृष्ण-भक्ति केवल मनुष्य शरीर में ही संभव है (9.29)|
हे उद्धव! मनुष्य को सभी परिस्थितियों में अपने जीवन के असलीस्वार्थ (उद्देश्य) को देखना चाहिए और इसीलिए पत्नी, संतान, घर, भूमि, रिश्तेदारों, मित्र, सम्पत्ति इत्यादि से विरक्त रहना चाहिए(10.7)| नित्यआत्मा के प्रति सचेष्ट मनुष्य को स्त्रियों तथा स्त्रियों से घनिष्ठता सेजुड़े रहने वाले व्यक्तियों की संगति त्याग देनी चाहिए और उसे अपना मन कोपूरी तरह से मुझमे लीन कर देना चाहिए  (14.29) | बच्चों, पत्नी, सम्बन्धियों तथा मित्रों की संगति यात्रियों के लघु मिलाप जैसी है | शरीरके परिवर्तन के साथ, मनुष्य ऐसे संगियों से उसी तरह विलग हो जाता है जिसतरह स्वप्न में मिली हुई सारी वस्तुएँ खो जाती हैं (17.53) | वास्तविक स्थिति पर गम्भीरतापूर्वक विचार करते हुए मुक्तात्मा को चाहिए किघर में एक मेहमान की तरह किसी स्वामित्व की भावना या मिथ्या अहंकार के बिनारहे (17.54) | किन्तु जिस गृहस्थ का मन अपने घर में आसक्त है और जो धन तथासंतान सुख को भोगने की तीव्र इच्छाओं से विचलित है, जो स्त्रियों के कियेकाम वासना से पीड़ित है और जो मूर्खतावश सोचता है कि,”प्रत्येक वस्तु मेरीहै और मैं ही सब कुछ हूँनिसन्देह, वह व्यक्ति माया-जल में फँसा हुआ है (17.56) |
हे उद्धव!जीव मेरा भिन्नांश है, किन्तु अज्ञान के कारण वह अनादिकाल से भौतिक बंधन भोगता रहता है फिर भी ज्ञान के द्वारा वह मुक्त हो सकताहै (11.4) | अपने सकाम कर्म के कारण बद्धजीव, सतोगुण के सम्पर्क से ऋषियोंया देवताओं के बीच जन्म लेता है | रजोगुण के सम्पर्क से वह असुर या मनुष्यबनता है और तमोगुण की संगति से वह भूतप्रेत या पशु जगत में जन्म लेता है (22.52) | वह व्यक्ति स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों से पूर्णतया मुक्त मानाजाता है, जब उसके प्राण, इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि के सारे कार्य किसीभौतिक इच्छा के बिना संपन्न किये जाते हैं (11.14) | यध्यपि वह अन्यों कोअच्छा तथा बुरा कार्य करते और उचित व अनुचित बोलते देखता है किन्तु वह किसीकी प्रशंसा या आलोचना नहीं करता (11.16) |
हे उद्धव!  वह व्यक्ति निश्चय ही अत्यन्त दुखी रहता है, जो दूध नदेनी वाली गाय, कुलटा पत्नी, पूर्णतया पराश्रित शरीर, निक्कमें बच्चों यासही कार्य में न लगायी जाने वाली धन सम्पदा की देखरेख करता है | इसीतरह जो मेरी महिमा से रहित वैदिक ज्ञान का अध्ययन करता है वह भी सर्वाधिकदुखियारा है (11.19) | भौतिक जगत में हर व्यक्ति कुछ वस्तुओं को अत्यन्तप्रिय मानता है और इन वस्तुओं के प्रति लगाव के कारण अन्ततः वह दीन-हीन बनजाता है | जो व्यक्ति इसे समझता है, वह भौतिक संपत्ति के स्वामित्व तथालगाव को त्याग देता है और इस तरह असीम आनन्द प्राप्त करता है (9.1) | यदितुम अपने मन को आध्यात्मिक पद पर स्थिर करने में असमर्थ हो तो अपने सारेकार्यों को, उनका फल भोगने का प्रयास किये बिना मुझे अर्पित करो (11.22) | ऐसा मर्त्य व्यक्ति कौन होगा जो इस मनुष्य जीवन को जो कि स्वर्ग तथा मोक्ष का द्वार है, प्राप्त कर भौतिक सम्पत्ति रूपी व्यर्थ के धाम के प्रति अनुरुक्त होगा? (23.23) |
हे उद्धव! जिसने मेरे भक्तों की संगति से शुद्ध भक्ति प्राप्त कर ली है वह निरंतर मेरी पूजा में लगा रहता है, इस तरह वह आसानी से मेरे धामको प्राप्त करता है (11.25) | भक्तों की संगति में सदा मेरी कथाओं की चर्चाचलती रहती है और जो लोग मेरी महिमा के इस कीर्तन तथा श्रवण में भाग लेतेहैं वे निश्चित रूप से सारे पापों से शुद्ध हो जाते हैं (26.28) | यदि कोईव्यक्ति मरे भक्तों की संगति से सम्भव मेरी प्रेमा-भक्ति में प्रवृत नहीहोता,तो भौतिक जगत से बचने का कोई उपाय उसके पास नही रहता (11.48) | मेरे शुद्ध भक्तों की संगति करने से, इन्द्रियतृप्ति के प्रति आसक्ति को नष्ट किया जा सकता है | शुद्धि करने वाली ऐसी संगति मुझे मेरे भक्त के वश में कर देती है (12.1) | पूरे मन से केवल मेरी ही शरण ग्रहण करो, और भय से मुक्त हो जाओ क्योकि में ही समस्त बद्धात्माओं के हृदय के भीतर स्थित भगवान हूँ (12.15) |
हे उद्धव!जो लोग समस्त भौतिक इच्छायें त्याग कर, अपनी चेतनामुझमें स्थिर करते हैं, वे मेरे साथ उस सुख में हिस्सा बटातें हैं जिसे भौतिक इन्द्रिय तृप्ति में अनुरुक्त मनुष्यों द्वारा अनुभव नहीं किया जासकता (14.12) | यदि मेरा भक्त पूरी तरह से अपने इन्द्रियों को जीत नहींपाता, तो वह भौतिक इच्छाओं द्वारा उदगिन किया जा सकता है किन्तु मेरे प्रतिअविचल भक्ति के कारण, वह इन्द्रियतृप्ति द्वारा परास्त नहीं किया जा सकता (14.18) |
हे उद्धव!  जिस प्रकार सोने को जब आग में पिघलाया जाता है तोउसकी सारी अशुद्धियाँ दूर हो जाती हैं तथा अपनी मूल दीप्तिमान अवस्था कोप्राप्त कर  लेता है उसी प्रकारआत्मा जब भक्ति योग में डूब जाती हैतो उसके पिछले जन्मो के सभी कर्म-फल नष्ट हो जाते हैं | तब आत्मा भी अपनीनित्य स्थिति जो भगवान के दास रूप में है, को पा जाती है (14.25) | हे उद्धव, जिस तरह धधकती अग्नि इंधन को जलाकर राख कर देती है, उसी तरह मेरी भक्ति मेरे भक्त द्वारा किये गए पापों को पूर्णतया भस्म कर देती है | हे उद्धव, भक्तों द्वारा की जाने वाली मेरी शुद्ध भक्ति मुझे उनके वशमें करने वाली है | मुझ पर पूर्ण श्रद्धा से युक्त शुद्ध भक्ति का अभ्यासकरके ही मुझे प्राप्त किया जा सकता है | मैं अपने उन भक्तों को प्रिय हूँजो मुझे ही अपनी प्रेमाभक्ति का एकमात्र लक्ष्य मानते हैं (14.19-20-21) |
हे उद्धव!  वास्तविक धार्मिक सिद्धांत वे हैं जो मनुष्य को मेरीभक्ति तक ले जाते हैं | इन्द्रिय तृप्ति की वस्तुओं में पूर्ण अरुचि हीवैराग्य है (19.27) | स्वर्ग तथा नरक दोनों ही के निवासी, प्रथ्वीलोक परमनुष्य का जन्म पाने की आकांक्षा रखते हैं क्योंकि मनुष्य जीवन दिव्य ज्ञानतथा भगवत्प्रेम की प्राप्ति को सुगम बनता है (20.12) | भौतिक शरीर निश्चयही विधाता के वश में रहता है, अतः यह शरीर तब तक इन्द्रियों तथा प्राण केसाथ जीवित रहता है जब तक उसका कर्म प्रभावशाली रहता है (13.37) | यह जानतेहुए कि भौतिक शरीर मरणशील है, तो भी यह जीवन-सिद्धि प्रदान कर सकता है | इसलिए विद्वान् व्यक्ति को मृत्यु आने के पूर्व आलस्य त्याग कर जीवन-सिद्धिप्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए (20.14) |
हे उद्धव!  इन सारी वस्तुओं को जो सकाम कर्म, तपस्या, ज्ञान, वैराग्य, योग, दान,  धर्म तथा जीवन को पूर्ण बनाने वाले अन्य सारेसाधनों से प्राप्त की जाती हैं, मेरा भक्त मेरे प्रति भक्ति से अनायासप्राप्त कर लेता है (20.32 | मेरे भक्त मेरे अतिरिक्त कुछ भी नहींचाहते, सच तो यह है कि यदि मैं उन्हें जन्म-मृत्यु से मुक्ति भी प्रदानकरता हूँ तो वे इसे स्वीकार नहीं करते (20.34) | इसलिए जिसकी कोई निजीइच्छा नहीं होती और जो निजी लाभ के पीछे नहीं भागता, वह मेरी प्रेमा भक्ति प्राप्त कर सकता है (20.35) | जो व्यक्ति कर्मफल का विचार किये बिना, भक्ति में लगा रहता हैवह मुझे प्राप्त करता है (27.53) | पूर्ण भक्त के लिए मुझ परम सत्य कीभक्ति प्राप्त कर लेने के बाद, करने के लिए बचता ही क्या है? (26.30) |
हे उद्धव! जीव भौतिक जगत से परे है किन्तु भौतिक प्रक्रति परप्रभुत्व जताने की मनोवृति के कारण उसका अस्तित्व मिटता नहीं (28.13) | जबतक मनुष्य द्रढ़तापूर्वक मेरी भक्ति का अभ्यास करके अपने मन से भौतिककाम-वासना के कल्मष को पूरी तरह निकल नही फेंकता है, तब तक उसे भौतिक गुणोंकी संगति करने में सावधानी बरतनी चाहिए जो मेरी मायाशक्ति द्वारा उत्पन्नहोते हैं (28.27) | जिस तरह सोने की वस्तुएँ तैयार होने के पूर्व, एकमात्रसोना रहता है और जब ये वस्तुएँ नष्ट हो जाती है तो भी एकमात्र सोना बचारहता है | विविध नामों से व्यवहार में लाये जाने पर भी एकमात्र सोना हीअनिवार्य सत्य होता है | उसी तरह, इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि के पूर्व, इसकेसंहार के बाद और इसके अस्तित्व के समय केवल मैं ही विद्यमान रहता हूँ (28.19) |
हे उद्धव! जो व्यक्ति अनन्य भाव से मेरी पूजा करता है और जो सारेजीवों में मुझे उपस्थित समझता है, वह मेरी अविचल भक्ति प्राप्त करता है औरवह मेरे पास आता है | मैं सारे लोकों का परमेश्वर हूँ और परम कारण होनेसे,मैं इस ब्रह्मांड का सृजन और विनाश करता हूँ (18.44-45) | जो व्यक्तिसारे जीवों को इस भाव से देखता है की मैं उन में से हर एक में उपस्थित हूँ, जो शुद्ध ह्रदय से सारे जीवों के भीतर और अपने भी भीतर मुझको परमात्मा रूपमें देखता है वही वास्तव में बुद्धिमान माना जाता है | उसका मिथ्या अहंकार तुरंत नष्ट हो जाता है (29.14) | मन, वाणी तथा शरीर के कार्यों को प्रयोगकरके सारे जीवों के भीतर मेरी अनुभूति अध्यात्मिक प्रकाश की सर्वश्रेष्ट  विधि है (29.19) |
हे उद्धव! यह मनुष्य जीवन जो मेरा साक्षात्कार करने का अवसरप्रदान करता है, पाकर और मेरी भक्ति में स्थित हो कर मनुष्य मुझे प्राप्तकर सकता है (26.1) | मनुष्य को चाहिए कि सदैव मेरा स्मरण करते हुए बिनाकिसी हड़बड़ी के मेरे प्रति अपने सारे कर्तव्य पूरा करे | उसे चाहिए कि वह मनतथ बुद्धि मुझे अर्पित करके मेरी भक्ति के आकर्षण में अपना मन स्थिर करे (29.9) | जो व्यक्ति सारे सकाम कर्म त्याग देता है और मेरी सेवा करने कीतीव्र उत्कंठा से स्वयं को पूरी तरह मुझको सौंप देता है, वह जन्म-मृत्यु सेमोक्ष पा लेता है और मेरे समान ऐश्वर्य के पद पर उन्नत हो जाता है (29.34) | जो लोग मेरे द्वारा सिखलाये गये मुझे प्राप्त करने के इन नियमों कागम्भीरता से पालन करते हैं, वे मोह से छुटकारा पा लेते हैं और मेरे धाम कोप्राप्त करते हैं (20.37) |
हे उद्धव! जो व्यक्ति उदारतापूर्वक इस ज्ञान को मेरे भक्तों के बीचफैलाता है, वह परम सत्य का देना वाला है और मैं उसे अपने आपको दे देता हूँ (29.26) | जो कोई इस ज्ञान को श्रद्धा तथा ध्यान के साथ नियमित रूप से सुनता है और मेरीशुद्ध भक्ति में लगा रहता है, वह भौतिक कर्म के फलों के बन्धन से कभी नहीबंधता (29.28) | तुमसे कहे गए मेरी भक्ति के सिद्धांतों को श्रद्धा के साथ संपन्न करने से मर्त्य प्राणी दुर्जय मृत्यु को जीत लेता है (29.8) |
हरे कृष्णा,
दण्डवत
अवधेश पराशर

साधन भक्ति के 64 अंग


साधन भक्ति के 64 अंग
चैतन्य महाप्रभु सनातन गोस्वामी को (मध्यलीला अध्याय 22,114-129) भक्ति संपन्न करने के विधानों के विषय में बतातेहुए कहते हैं कि इन विधि से मनुष्य भगवत-प्रेम की सर्वोच्च पूर्णता प्राप्तकर सकता है, जो सर्वाधिक वांछित महाधन है | जिस दिव्य भक्ति सेकृष्ण-प्रेम प्राप्त किया है,यदि उसे इन्द्रियों से संपन्न किया जाता है तोवह साधन भक्ति कहलाती है |
साधन भक्ति के मार्ग में निम्नलिखित अंगों का पालन करना चाहिए :
1. प्रमाणिक गुरु की शरण ग्रहण करनी चाहिए |
2. उसीसे दीक्षा ली जाए |
3. उसी की सेवा की जाए |
4. गुरु से शिक्षा ग्रहण की जाए और भक्ति की शिक्षा के लिए प्रश्न किये जाएँ |
5. गुरु द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन किया जाए |
6. कृष्ण की तुष्टि के लिए सर्वस्व परित्यागकरने के लिए प्रस्तुत रहना तथा  कृष्ण की तुष्टि के लिए ही प्रत्येक वस्तुस्वीकार करना |
7. कृष्ण के धाम में निवास करना |
8. जीवन निर्वाह के लिए जितना आवश्यक हो उतना ही धन कमाना |
9. एकादशी के दिन उपवास करना |
10. धात्री व बरगद वृक्षों,गौवों, ब्राह्मणों तथा विष्णु-भक्तों की पूजा करे |
11. भक्ति तथा पवित्र नाम के विरुद्ध अपराधों से बचना चाहिए |
12. अभक्तों की संगति त्याग देना |
13. असंख्य शिष्य नही बनाने चाहिए |
14. मात्र प्रमाण देने तथा टीका करने के उद्देश्य से अनेक शास्त्रों का अधूरा अध्ययन करना |
15. हानि तथा लाभ को समान समझना |
16. शोक से अभिभूत नही होना चाहिए |
17. न तो देवताओं की पूजा करनी चाहिए, न ही उनका निरादर करना चाहिए |
18. भगवान विष्णु व उनके भक्तों की निन्दा कभी नही सुननी चाहिए |
19. स्त्री-पुरुषों की प्रेम-कथाओं वाली या इन्द्रियों को अच्छी लगने वाली पुस्तकों को नही पढना चाहिए |
20. मन या वचन से किसी भी जीव को न सताये,बहले ही व कितना तुच्छ न हो |
भक्ति में प्रतिष्ठित व्यक्ति के लिए करणीय कर्म इस प्रकार हैं :
1.श्रवण, 2.कीर्तन, 3.स्मरण, 4.पूजन, 5.वन्दन, 6.सेवा, 7.दास्य-भाव को स्वीकारकरना, 8.मित्र बनना  तथा  9. पूर्णतया समर्पण करना | 10. अर्चा-विग्रह केसमक्ष नृत्य करे | 11. अर्चा-विग्रह के समक्ष गाये | 12. अर्चा-विग्रह केसमक्ष मन की बात कहे |
13. अर्चा-विग्रह को नमस्कार करे | 14. अर्चा-विग्रह तथा गुरु के समक्ष खड़ा हो कर सम्मान जताए | 15. उनका तथा गुरुका अनुसरण करे | 16. विभिन्न तीर्थ-स्थानों तथा मंदिरों मेंअर्चा-विग्रहों का दर्शन करने जाए | 17. मंदिर की परिक्रमा करे | 18. स्तव-पाठ करे |
19. मन्द स्वर में पाठ करे | 20. सामूहिककीर्तन करे | 21. अर्चा-विग्रह पर चढ़ी फूलों की माला को सूँघे | 22. अर्चा-विग्रह पर चढ़या गए भोजन का शेष ग्रहण करे | 23. आरती तथा उत्सवों मेंशामिल हों | 24. अर्चा-विग्रह का दर्शन करे |  25. अपनी प्रिय वस्तु अर्चा-विग्रह पर अर्पित करे | 26. अर्चा-विग्रह का ध्यान करे |
भगवान से सम्बन्धित (तदीय-सेवन) :
27. तुलसीदल की सेवा | 28. वैष्णव की सेवा | 29. कृष्ण की जन्म भूमि मथुरा की सेवा | 30. श्रीमद भागवत की सेवा |
भक्त को चाहिए कि वह :
31. कृष्ण के लिए सारी चेष्टाएँ करे |
32. कृष्ण की कृपा के लिए लालायित रहे |
33. भक्तों के साथ विभिन्न उत्सवों यथा कृष्ण जन्माष्टमी व रामनवमी में भाग ले |
34. सभी प्रकार से कृष्ण की शरण में जाए |
35. कार्तिक-व्रत जैसे विशेष व्रत रखे |
भक्ति के निम्नलिखित 5 अंग सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं, यदि इन पाँचों को थोडा सा भी संपन्न किया जाए तो कृष्ण प्रेम जागृत हो जाता है
36. भक्तों की संगति करे |
37. भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन करे |
38. श्रीमद भागवतम का पाठ सुने |
39. मथुरा में वास करे तथा
40. श्रद्धा-पूर्वक श्रीविग्रह या अर्चा-विग्रह की पूजा करे |
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के अनुसार भक्ति के अंगों में ये चार अंग और जोड़ दिए जाते हैं:
1.  शरीर के विभिन्न अंगों में तिलक लगाना |
2.  सारे शरीर में भगवान के नाम लिखना |
3.  अर्चा-विग्रह की माला स्वीकार करना तथा
4.  चरणामृत ग्रहण करना |
इस तरह कुल 44 अंग हो जाते हैं | यदि हम इनमेपिछले 20 अंग जोड़ दे तो कुल संख्या 64 हो जाती है | भक्ति के इन 64 अंगोंमें शरीर, मन तथा इन्द्रियों के सारे कार्यकलाप निहित हैं |

हरे कृष्ण
दण्डवत
अवधेश पराशर