श्रीमद् भागवतम (7.5.23) के अनुसार, प्रहलाद महाराज ने अपने पितादैत्य-राज हिरन्यकशिपू के पूछने पर सर्वश्रेष्ठ शिक्षा के रूप में नवधाभक्ति (9 प्रकार की भक्ति) का वर्णन किया:
1.श्रवणं: भगवान के पवित्र नाम को सुनना भक्ति काशुभारम्भ है | श्रीमद् भागवतम के पाठ को सुनना सर्वाधिक महत्वपूर्ण श्रवणविधि है | श्रवण से प्रारम्भ करके भक्ति द्वारा ही मनुष्य पूर्ण पुरुषोत्तमभगवान तक पहुँच सकता है (CC.आदि लीला 7.141)| परीक्षित महाराज ने केवलश्रवण से मोक्ष प्राप्त किया |
2. कीर्तनं: भगवान् के पवित्र नाम का सदैव कीर्तन करना | चैतन्यमहाप्रभु ने संस्तुति की है: “कलह तथा कपट के इस युग में उद्धार का एकमात्र साधन भगवान् के नाम का कीर्तन है | कोई अन्य उपाय नहीं है, कोई अन्यउपाय नहीं है, कोई अन्य उपाय नहीं है | निरपराध होकर हरे कृष्ण महामंत्र काकीर्तन करने मात्र से सारे पाप-कर्म दूर होजाते हैं और भगवतप्रेम कीकारणस्वरूपा शुद्ध भक्ति प्रकट होती है (CC.आदि लीला 8.26) | भगवान कापवित्र नाम भगवान के ही समान शक्तिमान है, अतः भगवान के नाम के कीर्तन तथा श्रवण-मात्र से लोग दुर्लघ्य मृत्यु को शीघ्र ही पार कर लेते हैं (SB.4.10.30) | शुकदेव गोस्वामी जी ने केवल कीर्तन से मोक्ष प्राप्त किया |
3. स्मरणं: श्रवण तथा कीर्तन विधियों को नियमित रूप से संपन्नकरने तथा अंत:करण को शुद्ध कर लेने के बाद स्मरण की संस्तुति की गयी है | मनुष्य को स्मरण की सिद्धि तभी मिलती है जब वह निरन्तर भगवान के चरण कमलोंका चिंतन करता है | भक्तियोग का मूल सिद्धांत है भगवान के विषय में निरंतर चिंतन करना, चाहे कोई किसी तरह से भी चिंतन करे | प्रह्लाद महाराज ने भगवान के निरन्तर स्मरण से मोक्ष प्राप्त किया |
4. पाद-सेवनम: भगवान के चरण कमलों के चिंतन में गहन आसक्ति होनेको पाद-सेवनम कहते हैं | वैष्णव, तुलसी, गंगा तथा यमुना की सेवा, पाद-सेवनममें शामिल है | लक्ष्मी जी ने भगवान के चरण कमलों की सेवा कर के सिद्धिप्राप्त की |
5. अर्चनं: अर्चनं अर्थात भगवान के अर्चाविग्रह की पूजा | अर्चाविग्रह की पूजा अनिवार्य है | प्रथु महाराज ने भगवान के अर्चाविग्रह की पूजा कर के मोक्ष प्राप्त किया |
6.वन्दनं: भगवान की वंदना या स्तुति करना | अक्रूरजी ने वंदना के द्वारा मोक्ष प्राप्त किया |
7. दास्यम: दास के रूप में भगवान की सेवा करना | हनुमान जी ने भगवान राम की सेवा कर के मोक्ष प्राप्त किया |
8. साख्यं: मित्र के रूप में भगवान की पूजा करना | सखा शब्दप्रगाढ़ प्रेम का सूचक है | अर्जुन ने भगवान से मैत्री स्थापित कर के मोक्षप्राप्त किया | तथा
9.आत्मनिवेदनम: जब भक्त अपना सर्वस्व भगवान को अर्पित करदेता है और हर कार्य भगवान को प्रसन्न करने के लिए करता है, यह अवस्था आत्मनिवेदनम है | आत्मनिवेदनम का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण बलि महाराज तथा अम्बरीष महाराज का है | आत्मसमर्पण करने के फलस्वरूप भगवान बलि महाराज के द्वारपाल बन गये तथा उन्होंने सुदर्शन चक्र को अम्बरीष महाराज की सेवा मेंनियुक्त कर दिया |
भक्ति सम्पन्न करने की नौ संस्तुत विधियाँ सर्वश्रेष्ठ हैं, क्योंकिइन विधियों में कृष्ण तथा उनके प्रति प्रेम प्रदान करने की महान शक्तिनिहित है (CC.अन्त्य लीला 4.70) | भक्ति का फल जीवन का चरम लक्ष्य भगवत्प्रेम है (CC.मध्य लीला 23.3) | श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा है:“जबमनुष्य श्रवण, कीर्तन से आरम्भ होने वाली इन नौ विधियों से कृष्ण कीप्रेममयी सेवा करता है, तब उसे सिद्धि का पाँचवां पद एवं जीवन के लक्ष्य कीसीमा भगवत्प्रेम की प्राप्ति होती है” (CC.मध्य लीला 9.261) | जब कोईव्यक्ति भक्ति में स्थिर हो जाता है, तो चाहे एक विधि को सम्पन्न करे याअनेक विधियों को, उसमे भगवत्प्रेम जागृत हो जाता है (CC.मध्य लीला 22.134) | वह भी श्री कृष्ण को प्रसन्न कर सकता है, जिस प्रकार उपरोक्त ने किया है |
श्रीमद् भागवतम (4.8.59-61) मेंनारद मुनि ध्रुव को समझाते हैं: “जो कोई गम्भीरता तथा निष्ठा से अपने मन,वचन तथा शरीर से भगवान की भक्तिकरता है और जो बताई गई भक्ति-विधियों के कार्यों में मग्न रहता है, उसे उसकी इच्छानुसार भगवान वर देते हैं | यदि भक्त धर्म,अर्थ, काम या भौतिकसंसार से मोक्ष चाहता है, तो भगवान इन सभी फलों को प्रदान करते हैं | लेकिनयदि कोई मुक्ति के लिए अत्यंत उत्सुक हो तो उसे दिव्य प्रेमाभक्ति कीपद्धति का द्रढ़ता से पालन कर समाधी की सर्वोच्च अवस्था में रहना चाहिए और इन्द्रिय-तृप्ति के समस्त कार्यों से पूर्णतया विरक्त रहना चाहिए” |
भक्ति में विशेष प्रगति करने के लिए श्रवण तथा कीर्तन विधियों को संपन्नकरते समय हमें भगवान का स्मरण (भगवान के सर्वआकर्षक रूप का ध्यान) अवश्यकरना चाहिए | श्रवण, कीर्तन, स्मरण इत्यादि आध्यात्मिक कार्यकलाप भक्तिके स्वाभाविक लक्षण है | इसका तटस्थ लक्षण यह है कि इससे कृष्ण के प्रतिशुद्ध प्रेम उत्पन्न होता है (CC.मध्य लीला 22.106) | यमराज कहते हैं कि “भगवान के नाम के कीर्तन से प्रारंभ होने वाली भक्ति ही इस भौतिक जगत में जीव के लिए परम धार्मिक सिद्धांत है” (SB.6.3.22) | अतः जो व्यक्ति भवबंधन से मुक्त होना चाहता है, उसे चाहिए कि भगवान केनाम, यश, रूप, तथा लीलाओ के कीर्तन तथा गुणगान की विधि को अपनाए (SB.6.2.46) | हे नरहरी,जिन जीवों ने यह मनुष्य जीवन प्राप्त किया है यदि वे आपका श्रवण,कीर्तन,स्मरण तथा अन्य भक्ति कार्य करके आपकी पूजा करने से चूक जाते हैं तो वहव्यर्थ ही जीवित हैं और धोंकनी के समान ही स्वांस लेते रहते हैं (श्रीलश्रीधर स्वामी ) |
जिस व्यक्ति ने कभी भी भगवान के शुद्ध भक्त की चरण-धूलि अपने मस्तक परधारण नही की, वह निश्चित रूप से शव है तथा जिस व्यक्ति ने भगवान केचरण-कमलो पर चढे तुलसी-दलों की सुगन्धि का अनुभव नही किया,वह स्वांस लेतेहुए भी मृत देह के तुल्य है (SB.2.3.23) | चाहे निष्काम हो, चाहेसमस्त कामनाओं से युक्त हो, अथवा मोक्ष चाहता हो, बुद्धिमान व्यक्ति कोचाहिए कि भक्ति योग के द्वारा भगवान श्री कृष्ण की आराधना करे | वैदिकग्रंथों में कृष्ण आकर्षण के केन्द्रबिन्दु हैं और उनकी सेवा करना हमाराकर्म है | हमारे जीवन का चरम लक्ष्य कृष्ण-प्रेम प्राप्त करना है | अतएवकृष्ण, कृष्ण की सेवा तथा कृष्ण-प्रेम; ये जीवन के तीन महाधन हैं (CC.मध्यलीला 20.143) | भक्ति का अर्थ है समस्त इन्द्रियों के स्वामी, पूर्णपुरुषोत्तम भगवान की सेवा में अपनी सारी इन्द्रियों को लगाना | भगवान कीसेवा में लगे रहने मात्र से व्यक्ति की इन्द्रियाँ शुद्ध हो जाती हैं (CC.मध्य लीला 19.170) | इन्द्रियों के द्वारा इन्द्रियों के स्वामी कीसेवा करना ही भक्ति है | अपनी खुद की इन्द्रियों की तृप्ति करने की इच्छा “काम” है, किन्तु कृष्ण की इन्द्रियों को तुष्ट करने की इच्छा “प्रेम” है (CC.आदि लीला 4.165) |
जब बच्चा जन्म लेता है, तो कुछ दिनों में ही अपनी माँ को प्रेम करनेलगता है, फिर अपने पिता को | धीरे धीरे वह अपने अन्य भाई,बहन को प्रेम करनेलगता है | क्या उसे कोई यह प्रेम करना सिखाता है? नहीं | भगवान प्रत्येकजीव को प्रेम करने की शक्ति अर्थात भक्ति देकर ही इस जगत में भेजतें हैं | लेकिन हम इस शक्ति को शरीर के रिश्तेदारों व संसारिक वस्तुओं में निवेशितकरते रहते हैं जबकि इसे हमें भगवान की सेवा या भक्ति में नियोजित करना होताहै | तभी हम भगवत-प्रेम का विकास अपने हृदय में कर सकते हैं | वस्तुतःभगवान के साथ हमारा सम्बन्ध सेवा का सम्बन्ध है | भगवान परम भोक्ता हैं औरहम सारे जीव उनके भोग(सेवा) के लिए बने हैं और यदि हम भगवान के साथ उसनित्य भोग में भाग लेते हैं तो हम वास्तव में सुखी बनते है तथ आनन्द काउपभोग करते हैं, क्योंकि भगवान आनन्द के आगार हैं | हम किसी अन्य प्रकार सेया स्वंतत्र रूप से कभी भी सुखी नही बन सकते |
श्रीमद् भागवतम (4.22.22-23) में सनत्कुमार राजा पृथू को समझाते हुए कहते हैं: “भक्ति करने,भगवान के प्रति जिज्ञासा करने, जीवन में श्रद्धा पूर्वकभक्तियोग का पालन करने, भगवान की पूजा करने तथा भगवान की महिमा का श्रवण वकीर्तन करने से परमेश्वर के प्रति आसक्ति बड़ाई जा सकती है | मनुष्य को अपनाजीवन इस प्रकार ढालना चाहिए कि उसे भगवान हरि की महिमा का अमृत पान कियेबिना चैन न मिले” | तथाशुकदेव गोस्वामी शौनकादि ऋषियों से कहते हैं” “भगवान कृष्ण के चरण-कमलों की स्मृति प्रत्येक अशुभ वस्तु को नष्ट करती हैऔर परम सौभाग्य प्रदान करती है | यह हृदय को परिशुद्ध करती है तथा भक्तिके साथ साथ त्याग से युक्त ज्ञान प्रदान करती है” (SB.12.12.55) |
प्रह्लाद महाराज भगवान नृसिंह की प्रार्थना करते हुए भक्ति की श्रेष्ठता का वर्णन करते हुए कहते हैं: “भले ही मनुष्य के पास सम्पत्ति, राजसी परिवार, सौन्दर्य, तपस्या, शिक्षा, दक्षता, कान्ति, शारीरिक शक्ति, बुद्धि तथा योगशक्ति क्यों न हों, किन्तु इन सारी योग्यताओं से भी कोई व्यक्ति भगवान को प्रसन्न नही कर सकता | केवल भक्ति से वह ऐसा कर सकता है (SB.7.9.9) | न तो भौतिक प्रकृति के तीनगुण, न इन तीन गुणों के नियामक अधिष्ठाता देव, न पांच स्थूल तत्व, न देवता, न मनुष्य ही आपको समझ सकते हैं क्योंकि ये सभी जन्म- मृत्यु के वशीभूतरहते हैं ऐसा विचार करके बुद्धिमान व्यक्ति वैदिक अध्ययन की परवाह नहीकरते, अपितु वे आपकी भक्ति में अपने आप को लगाते हैं |
भक्ति-कर्म दो प्रकार का है; राग भक्ति (स्वतः स्फूर्त) तथा विधि भक्ति (साधन भक्ति) | रागानुगा भक्ति से मनुष्य को मूल भगवान अर्थात कृष्ण की प्राप्ति होतीहै और विधि-विधानों से भक्ति करने पर मनुष्य को भगवान का विस्तार रूपप्राप्त होता है | माता यशोदा के पुत्र भगवान कृष्ण रागानुगा प्रेमा-भक्तिमें लगे भक्तों के लिए उपलब्ध हैं | वैधि भक्ति करने से मनुष्य नारायण का पार्षद बनता हैं (CC.मध्य लीला 24.84-87) |
श्रीमद् भागवतम (6.9.48) में भगवान कहते हैं: “यह सत्य है कि मेरे प्रसन्न हो जाने पर किसी के लिए कुछ भी प्राप्त कर लेना कठिन नही है, तो भीशुद्ध भक्त जिसका मन अनन्य भाव से मुझ पर स्थिर है, वह मेरी भक्ति में निरत रहने के अवसर के अतिरिक्त मुझ से और कुछ नही मांगता”| भक्ति इतनीप्रबल है कि जब कोई इसमें लग जाता है, तो वह क्रमशः समस्त भौतिक इच्छाओं कापरित्याग कर देता है और पूरी तरह से कृष्ण के चरण-कमलों के प्रति अनुरुक्तहो जाता है यह सब भगवान के दिव्य गुणों के प्रति आकर्षण से ही सम्भव होपाता है (CC.मध्य लीला 24.198) | भगवान वासुदेव में अविचल भक्ति रखने वालेव्यक्ति के चरित्र में समस्त सद्गुण स्वतः आ जाते हैं (SB.5.18.12) | यदि किसी में कृष्ण के प्रति अविचल भक्तिमयी श्रद्धा है, तो उसमें सारेदेवताओं के सद्गुण धीरे-धीरे प्रकट हो जाते हैं (CC.आदि लीला 8.58) | श्रीसूत गोस्वामी ने जन साधारण के परम कल्याण के विषय पर ऋषियों के पूंछने परबताया कि “सम्पूर्ण मानवता के लिए परमवृति (धर्म) वही है, जिसके द्वारासारे मनुष्य भगवान की प्रेम-भक्ति प्राप्त कर सके | ऐसी भक्ति अकारण तथाअखंड होनी चाहिये जिससे आत्मा पूर्ण रूप से तुष्ट हो सके | भगवान श्री कृष्ण की भक्ति करने से मनुष्य तुरन्त ही अहैतुक ज्ञान तथा संसार से वैराग्य प्राप्त कर लेता है”(SB.1.2.6-7) | श्रीमद् भागवतम (4.24.59) में शिवजी कहते हैं:“जिसका ह्रदय भक्तियोग से पूर्ण रूप से पवित्र हो चुका हो तथा जिस पर भक्ति देवीकी कृपा हो, ऐसा भक्त कभी भी अंधकूप सद्रश्य माया द्वारा मोहग्रस्त नहीं होता” |
श्रीमद् भागवतम (12.3.45-46) में शुकदेव गोस्वामी कलियुग के लक्षण बताने के बाद महाराज परीक्षित को बताते हैं कि“कलियुग में वस्तुएँ, स्थान तथा व्यक्ति भी सभी प्रदूषित हो जाते हैं | किन्तु यदि कोई व्यक्ति हृदय के भीतर स्थित परमेश्वर के विषय में सुनता है, उनकीमहिमा का गान करता है, उनका ध्यान करता है उनकी पूजा करता है तो भगवान उसव्यक्ति के मन से हजारों जन्मों से संचित कल्मष को दूर कर देते हैं” | तथा श्रीमद् भागवतम के स्कन्द 10 को शुकदेव गोस्वामी इस श्लोक से समाप्त करते हैं:नित्यप्रति अधिकाधिक निष्ठापूर्वक भगवान मुकुन्द की सुन्दर कथाओं के नियमित श्रवण, कीर्तन तथा ध्यान से मर्त्य प्राणी को भगवान का दैवीधाम प्राप्त होगा जहाँमृत्यु की दुस्तर शक्ति का शासन नहीं है (SB.10.90.50) |
यह भक्ति ज्ञान आपके और मेरे हृदय में प्रकट हो इसी शुभकामना के साथ,
CC- Chaitanya Charitamrit
SB- Shrimad Bhagwatam
हरे कृष्ण
दण्डवत
अवधेश पराशर
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