आइये दोस्तों आज हम अध्यात्मिक जगत को जानने का प्रयास करते हैं की वह कहाँ है ?
सबसे पहले आप निम्न लेख को पढ़ें https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%82%E0%A4%9F%E0%A5%80%E0%A4%AE%E0%A5%88%E0%A4%9F%E0%A4%B0
अब हम इसको समझने का प्रयास करते हैं
उपरोक्त लेख मैं निम्नलिखित प्रस्ताव प्रस्तुत किये गए हैं.
१. एक प्रतिपदार्थ अणु या कण होता है जो की पदार्थमय (भौतिक अथवा मटेरियल) अणुओं के गुणों से निर्मित हैं.
२. इस पदार्थमय संसार के अतिरिक्त एक और संसार है जिसका केवल सीमित अनुभव है.
३. प्रतिपदार्थमय संसार और पदार्थमय संसार किसी निश्चित समय मैं एक दूसरे से टकरा सकते हैं और एक दूसरे को विनष्ट कर सकते हैं.
उपरोक्त तीनों मैं से हम आस्तिक विज्ञानं के विद्यार्थी १ और २ से पूर्णतः सहमत हैं किन्तु तीसरे प्रस्ताव का समर्थन हम केवल बैज्ञानिक परिभाषा के अंतर्गत ही कर सकते हैं. कठिनाई इस बात मैं है प्रतिपदार्थ से सम्बंधित वैज्ञानिकों द्रष्टिकोण मात्र भौतिक ऊर्जा के एक प्रकार एक अन्य प्रकार तक ही विस्तृत है जबकि वास्तविक प्रतिपदार्थ पूर्णतः अभौतिक होना चाहिए | पदार्थ अपनी बनावट मैं विनाशगत, किन्तु प्रतिपदार्थ यदि वास्तव मैं वह समस्त भौतिक गुणों से मुक्त है तो विनाश से मुक्त होना चाहिए.
यदि पदार्थ विभाजित होने लायक है तो प्रतिपदार्थ अविनाशी और अटूट होना चाहिए |
समस्त विश्व मैं सर्वाधिक मान्य शास्त्र वेद हैं. वेद ४ हैं हम सब जानते हैं. सामान्य बुद्धि वाले व्यक्ति के लिए वेदों का विषय बहुत कठिन हैं. व्याख्या की द्रष्टि वेदों का स्पष्टीकरण महाकाव्य महाभारत तथा पुराणों मैं दिया गया है. रामायण भी एक महाकाव्य है जिसमें वेदों की समस्त आवश्यक जानकारी समाविष्ट हैं | उपनिषद चारों वेदों के ही भाग हैं. और वेदांत सूत्र वेदों का नवनीत हैं. समस्त वैदिक साहित्य के संक्षिप्तीकरण हेतु भगवद गीता को समस्त उपनिषदों का सार एवं वेदांत सूत्र की प्राथमिक व्याख्या के रूप मैं स्वीकार किया जाता है. अत: केवल भगवद गीता के द्वारा ही समस्त समस्त वेदों का सार प्राप्त किया जा सकता है |
भगवद गीता मैं भगवत की उत्कृष्ट शक्ति को परा शक्ति कहा गया है. बैज्ञानिकों ने खोज की है की नाशवान पदार्थ दो प्रकार के होते हैं, किन्तु गीता पूर्ण रूप से पदार्थ व प्रतिपदार्थ की संकल्पना, शक्ति के दो रूपों मैं वर्णित करती है. पदार्थ एक शक्ति है जो पदार्थमय संसार बनती है और वही शक्ति अपने उच्चतर रूप मैं प्रतिपदार्थमय (दिव्य) जगत का भी निर्माण करती है.
सबसे पहले आप निम्न लेख को पढ़ें https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%82%E0%A4%9F%E0%A5%80%E0%A4%AE%E0%A5%88%E0%A4%9F%E0%A4%B0
अब हम इसको समझने का प्रयास करते हैं
उपरोक्त लेख मैं निम्नलिखित प्रस्ताव प्रस्तुत किये गए हैं.
१. एक प्रतिपदार्थ अणु या कण होता है जो की पदार्थमय (भौतिक अथवा मटेरियल) अणुओं के गुणों से निर्मित हैं.
२. इस पदार्थमय संसार के अतिरिक्त एक और संसार है जिसका केवल सीमित अनुभव है.
३. प्रतिपदार्थमय संसार और पदार्थमय संसार किसी निश्चित समय मैं एक दूसरे से टकरा सकते हैं और एक दूसरे को विनष्ट कर सकते हैं.
उपरोक्त तीनों मैं से हम आस्तिक विज्ञानं के विद्यार्थी १ और २ से पूर्णतः सहमत हैं किन्तु तीसरे प्रस्ताव का समर्थन हम केवल बैज्ञानिक परिभाषा के अंतर्गत ही कर सकते हैं. कठिनाई इस बात मैं है प्रतिपदार्थ से सम्बंधित वैज्ञानिकों द्रष्टिकोण मात्र भौतिक ऊर्जा के एक प्रकार एक अन्य प्रकार तक ही विस्तृत है जबकि वास्तविक प्रतिपदार्थ पूर्णतः अभौतिक होना चाहिए | पदार्थ अपनी बनावट मैं विनाशगत, किन्तु प्रतिपदार्थ यदि वास्तव मैं वह समस्त भौतिक गुणों से मुक्त है तो विनाश से मुक्त होना चाहिए.
यदि पदार्थ विभाजित होने लायक है तो प्रतिपदार्थ अविनाशी और अटूट होना चाहिए |
समस्त विश्व मैं सर्वाधिक मान्य शास्त्र वेद हैं. वेद ४ हैं हम सब जानते हैं. सामान्य बुद्धि वाले व्यक्ति के लिए वेदों का विषय बहुत कठिन हैं. व्याख्या की द्रष्टि वेदों का स्पष्टीकरण महाकाव्य महाभारत तथा पुराणों मैं दिया गया है. रामायण भी एक महाकाव्य है जिसमें वेदों की समस्त आवश्यक जानकारी समाविष्ट हैं | उपनिषद चारों वेदों के ही भाग हैं. और वेदांत सूत्र वेदों का नवनीत हैं. समस्त वैदिक साहित्य के संक्षिप्तीकरण हेतु भगवद गीता को समस्त उपनिषदों का सार एवं वेदांत सूत्र की प्राथमिक व्याख्या के रूप मैं स्वीकार किया जाता है. अत: केवल भगवद गीता के द्वारा ही समस्त समस्त वेदों का सार प्राप्त किया जा सकता है |
भगवद गीता मैं भगवत की उत्कृष्ट शक्ति को परा शक्ति कहा गया है. बैज्ञानिकों ने खोज की है की नाशवान पदार्थ दो प्रकार के होते हैं, किन्तु गीता पूर्ण रूप से पदार्थ व प्रतिपदार्थ की संकल्पना, शक्ति के दो रूपों मैं वर्णित करती है. पदार्थ एक शक्ति है जो पदार्थमय संसार बनती है और वही शक्ति अपने उच्चतर रूप मैं प्रतिपदार्थमय (दिव्य) जगत का भी निर्माण करती है.
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