साधन भक्ति के 64 अंग
चैतन्य महाप्रभु सनातन गोस्वामी को (मध्यलीला अध्याय 22,114-129) भक्ति संपन्न करने के विधानों के विषय में बतातेहुए कहते हैं कि इन विधि से मनुष्य भगवत-प्रेम की सर्वोच्च पूर्णता प्राप्तकर सकता है, जो सर्वाधिक वांछित महाधन है | जिस दिव्य भक्ति सेकृष्ण-प्रेम प्राप्त किया है,यदि उसे इन्द्रियों से संपन्न किया जाता है तोवह साधन भक्ति कहलाती है |
साधन भक्ति के मार्ग में निम्नलिखित अंगों का पालन करना चाहिए :
1. प्रमाणिक गुरु की शरण ग्रहण करनी चाहिए |
2. उसीसे दीक्षा ली जाए |
3. उसी की सेवा की जाए |
4. गुरु से शिक्षा ग्रहण की जाए और भक्ति की शिक्षा के लिए प्रश्न किये जाएँ |
5. गुरु द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन किया जाए |
6. कृष्ण की तुष्टि के लिए सर्वस्व परित्यागकरने के लिए प्रस्तुत रहना तथा कृष्ण की तुष्टि के लिए ही प्रत्येक वस्तुस्वीकार करना |
7. कृष्ण के धाम में निवास करना |
8. जीवन निर्वाह के लिए जितना आवश्यक हो उतना ही धन कमाना |
9. एकादशी के दिन उपवास करना |
10. धात्री व बरगद वृक्षों,गौवों, ब्राह्मणों तथा विष्णु-भक्तों की पूजा करे |
11. भक्ति तथा पवित्र नाम के विरुद्ध अपराधों से बचना चाहिए |
12. अभक्तों की संगति त्याग देना |
13. असंख्य शिष्य नही बनाने चाहिए |
14. मात्र प्रमाण देने तथा टीका करने के उद्देश्य से अनेक शास्त्रों का अधूरा अध्ययन करना |
15. हानि तथा लाभ को समान समझना |
16. शोक से अभिभूत नही होना चाहिए |
17. न तो देवताओं की पूजा करनी चाहिए, न ही उनका निरादर करना चाहिए |
18. भगवान विष्णु व उनके भक्तों की निन्दा कभी नही सुननी चाहिए |
19. स्त्री-पुरुषों की प्रेम-कथाओं वाली या इन्द्रियों को अच्छी लगने वाली पुस्तकों को नही पढना चाहिए |
20. मन या वचन से किसी भी जीव को न सताये,बहले ही व कितना तुच्छ न हो |
भक्ति में प्रतिष्ठित व्यक्ति के लिए करणीय कर्म इस प्रकार हैं :
1.श्रवण, 2.कीर्तन, 3.स्मरण, 4.पूजन, 5.वन्दन, 6.सेवा, 7.दास्य-भाव को स्वीकारकरना, 8.मित्र बनना तथा 9. पूर्णतया समर्पण करना | 10. अर्चा-विग्रह केसमक्ष नृत्य करे | 11. अर्चा-विग्रह के समक्ष गाये | 12. अर्चा-विग्रह केसमक्ष मन की बात कहे |
13. अर्चा-विग्रह को नमस्कार करे | 14. अर्चा-विग्रह तथा गुरु के समक्ष खड़ा हो कर सम्मान जताए | 15. उनका तथा गुरुका अनुसरण करे | 16. विभिन्न तीर्थ-स्थानों तथा मंदिरों मेंअर्चा-विग्रहों का दर्शन करने जाए | 17. मंदिर की परिक्रमा करे | 18. स्तव-पाठ करे |
19. मन्द स्वर में पाठ करे | 20. सामूहिककीर्तन करे | 21. अर्चा-विग्रह पर चढ़ी फूलों की माला को सूँघे | 22. अर्चा-विग्रह पर चढ़या गए भोजन का शेष ग्रहण करे | 23. आरती तथा उत्सवों मेंशामिल हों | 24. अर्चा-विग्रह का दर्शन करे | 25. अपनी प्रिय वस्तु अर्चा-विग्रह पर अर्पित करे | 26. अर्चा-विग्रह का ध्यान करे |
भगवान से सम्बन्धित (तदीय-सेवन) :
27. तुलसीदल की सेवा | 28. वैष्णव की सेवा | 29. कृष्ण की जन्म भूमि मथुरा की सेवा | 30. श्रीमद भागवत की सेवा |
भक्त को चाहिए कि वह :
31. कृष्ण के लिए सारी चेष्टाएँ करे |
32. कृष्ण की कृपा के लिए लालायित रहे |
33. भक्तों के साथ विभिन्न उत्सवों यथा कृष्ण जन्माष्टमी व रामनवमी में भाग ले |
34. सभी प्रकार से कृष्ण की शरण में जाए |
35. कार्तिक-व्रत जैसे विशेष व्रत रखे |
भक्ति के निम्नलिखित 5 अंग सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं, यदि इन पाँचों को थोडा सा भी संपन्न किया जाए तो कृष्ण प्रेम जागृत हो जाता है
36. भक्तों की संगति करे |
37. भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन करे |
38. श्रीमद भागवतम का पाठ सुने |
39. मथुरा में वास करे तथा
40. श्रद्धा-पूर्वक श्रीविग्रह या अर्चा-विग्रह की पूजा करे |
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के अनुसार भक्ति के अंगों में ये चार अंग और जोड़ दिए जाते हैं:
1. शरीर के विभिन्न अंगों में तिलक लगाना |
2. सारे शरीर में भगवान के नाम लिखना |
3. अर्चा-विग्रह की माला स्वीकार करना तथा
4. चरणामृत ग्रहण करना |
इस तरह कुल 44 अंग हो जाते हैं | यदि हम इनमेपिछले 20 अंग जोड़ दे तो कुल संख्या 64 हो जाती है | भक्ति के इन 64 अंगोंमें शरीर, मन तथा इन्द्रियों के सारे कार्यकलाप निहित हैं |
हरे कृष्ण
दण्डवत
अवधेश पराशर
Hare Krishna bahut hi sunder prabhu ji bahut -2 dhanybad hare Krishna
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